रेत भी प्रेम में उतरती है
✍️ अनीता सैनी
………
रेत —
बहुत धीरे-धीरे बहती है,
जैसे मरुस्थल ने
पानी की स्मृति को
कंठ में रोक लिया हो।
वह जानता है —
प्यास, कोई दोष नहीं —
एक साधना है।
रेत का हर कण
किसी बीते समंदर की याद है —
जो अपनी ही देह में सूख गया,
पर स्वर अब भी नम है।
धूप दिन-भर
परछाई बुनती रहती है;
उसकी उँगलियों पर अब भी
मदार की छाया ठहरी है —
छाया,
थोड़ी-सी ठंडी,
थोड़ी बुझी-बुझी,
थकान में बंधी।
मदार के फूलों का
सूखता जीवन —
उन्होंने अपना स्वर खो दिया,
जैसे समय ने किसी मधुरता को
अनजाने में दंडित कर दिया हो।
मरुस्थल में कोई लहर नहीं उठती,
पर उसकी हर रेखा में
जल की एक अनकही आकांक्षा है।
वह लहर भीतर ही भीतर चलती है —
निराकार, मौन, पर अडिग।
कहीं कुछ नहीं हिलता-डुलता,
फिर भी सब कुछ
बहता रहता है।
प्रतीक्षा यहाँ कोई मुद्रा नहीं,
एक देह है —
जो रेत ओढ़े बैठी है,
और जिसके नेत्रों में अब भी
समंदर का नीला स्थिर है।
वह अब कोई शब्द नहीं,
रेत के भीतर की बनावट है —
शायद इसलिए,
रेत भी प्रेम में उतरती है।
