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रविवार, दिसंबर 31

क्षणिकाएँ

1.

"मैं जल्द ही वापस आऊँगा।”
समय के साथ उसके पैर नहीं
यह वाक्य लड़खड़ाने लगा
तभी से मैं 
पुरुष शब्द का एक और अर्थ स्त्री पढ़ने लगी।

                                        अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                           २४मई २०२३

2.


तुम्हारी परछाई
मेरे जीवन की उँगली पकड़कर चलती है
वही उकेरती है भविष्य के कुछ चित्र
वर्तमान को पूर्णता का उपहार देती है
तब मैं दिन-रात को दिन-रात से पहचानती हूँ
प्रतीक्षारत की भाँति तारीख़ कहकर नहीं पुकारती।

                                       अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                           १९ मई २०२३

3.

हवा के साथ सरहद लांघ जाते हैं बादल
अब अगर कुछ दिनों में ये नहीं लौटे
तुम देखना! जेष्ठ कहर बरपाएगा 
बालू छाँव तकेंगी पौधे अंबर को  
मेरे दिन-रात तपेंगे तुम्हारे इंतज़ार में।
                                       अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                        २२ मई २०२३

4.

कभी-कभी
कोई वज़ह नहीं होती रूठने की 
फिर भी महीनों तक बातें नहीं होती
रास्ते भी जाने-पहचाने होते हैं
पीर पैरों की गहरी रही होगी 
कि वे उधर से गुजरते नहीं हैं ।
                               अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                  २८ मई २०२३

5.
निशीथ काल में
धरती उठी  
 कुछ अंबर झुका 
मौन में झरता समर्पण
चातक पक्षी ने गटका 
 फूल बरसाती हवा  
पशु-पक्षियों ने
 ध्यानमग्न हो सुना 
तब इंसान गहरी नींद में था।
                             अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                  ३१मई २०२३

6.

जिद्द नहीं साथ चलने की
पर किसी को इतना दूर भी
नहीं चलना चाहिए 
कि जब...
पीछे पलट कर देखें
सिवाय सुनसान रास्तों के कुछ न दिखे।
                                     अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                        २९मई २०२३

7.

किसी भी गाँव की लड़की को
काँटे नहीं चुभते
पगडंडियाँ
पाँव का स्पर्श पहचानती हैं
अब वे कहतीं हैं 
”बुहारे गए 
सभी काँटे मेरे पाँव में हैं।”
                            अनीता सैनी 'दीप्ति'
                             ९जून २०२३

8.
स्वेच्छाचारिता के फूटते 
अंकुर से 
सहजता सरलता के वृक्ष
 दम तोड़ देते हैं
या दबा दिए जाते हैं आवरण के नीचे 
जैसे दबा दी जाती हैं
घर के किसी कोने में बेटियाँ।
                         अनीता सैनी 'दीप्ति'
                          २३जुलाई २०२३
9.


अक्सर...
तुम्हारी देर से आने की आदत रही 
और मेरी तुम्हारा इंतजार में जागने की
दोनों की सादगी ने मिलकर
मेरे दिन-रात इकहरे कर दिया।
                        अनीता सैनी 'दीप्ति'
                          १९जुलाई २०२३
10.
ठीक कहा!
यह कहना कितना कठिन होता है
दुपहरी के लिए
जब वह
तप रही होती है सूरज के ताप से।
                                   अनीता सैनी 'दीप्ति'
                                     १८जुलाई २०२३


शब्द


शब्द /अनीता सैनी ‘दीप्ति’

….

हवा-पानी 

और प्रकाश की तरह

शब्दों की भी 

सरहदें नहीं होती,

शब्द 

दौड़ते हैं

ध्वनि वेग से

मूक-अमूक भावों के 

स्पर्श हेतु

संवेदनाओं का नाद

गहरा प्रभाव छोड़ता है

हृदय पर

क्योंकि शब्द 

हृदय की उपज है

मुख की नहीं।

शनिवार, दिसंबर 9

उसकी चेतना


उसकी चेतना / अनीता सैनी ‘दीप्ति’
उसकी चेतना 
मेरे अवचेतन में
है, बिछी 
सांसों की नमी से अँकुराती 
भावों की
धूप से पुष्पित-पल्लवित
अबुझे
फूल-सी हृदय में है,छिपी
अंतस में कुलबुलाती
मौन है,मंढे
मरु कणिका चंचला चंद्र प्रिया 
है,अति व्यग्र
नित नई उपमाएँ लिए कविता
है,गढ़े।

शुक्रवार, दिसंबर 1

शिव


शिव / अनीता सैनी ‘ दीप्ति’

….

टूटकर

बिखरी सांसें 

भाव

मोतियों से चमक उठे 

महावर सजे पैर

भोर!

दुल्हन बन उतरी थी

धरती पर।


उस दिन 

समर्पण के सागर में

 तिर रहा था उज्जैन 

भस्म

बादलों से बरसी

मन के एक कोने में उगा 

सूरज

मन मोह रहे थे

 महादेव 

गर्भगृह की चौखट पर बैठी

 मैं 

एक-टक निहार रही थी कि 

हृदय की रिक्तता ने  तोड़ा बाँध 

पलकें भीग गईं 

तब उसने कहा-

“काशी में मिलेंगे तुम्हें

शिव, कबीर

 तुम समर्पण लेते हुए जाना।”