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रविवार, नवंबर 16

नदी का छिपा हुआ दीप

नदी का छिपा हुआ दीप

(मौन की गहराई में जन्म लेता उजास)

✍️ अनीता सैनी
....

मेरी हर सुबह
मेरे पुरखों की हड्डियों में सोया उजास लेकर जन्म लेती है—
दूब की पतली पत्ती पर
थिरकती एक अकेली बूंद
साँसों की देह पर
मेरा नाम नहीं,
मेरी पहचान का पहला धड़कता अक्षर उकेर जाती है।

मैं
उस अनाम स्पंदन को छूती हूँ—
जैसे किसी पुराने देवदार की जड़
मुझमें अपनी एक फुसफुसाहट बो देती हो।
मैं उसे उन राहों में रख देती हूँ,
जहाँ पीछे लौटते पाँव नहीं—
केवल सपनों की महीन धूल है,
जो मंदिर की बुझी हुई धूप-सी
शांत और सुगंध-भरी उड़ती रहती है।

दोपहर—
अब ताप का नाम नहीं—
एक सफेद, निर्वाक मौन है,
जो सीने की पुरानी गुफाओं में
भटकते सवालों को
चूल्हे की काली राख की हल्की भाप-सा
धीरे-धीरे पकाता है।

कहीं
उस अनजानी खिड़की के पार
एक अनकहा स्पर्श
आँगन की मिट्टी की गंध में लौट आता है।
मैं उसे
हँसी समझकर सहेज लेती हूँ—
कि ममता अब नाल नहीं,
किसी पुरखिन चिड़िया का खोया पंख है,
जो पीढ़ियों के ऊपर
अपनी स्मृति बिछाकर उड़ता आया है।

संध्या—
किसी बूढ़ी नदी की
खामोश, काँपती रीढ़-सी
धीमे सुर में ढलती है—
उसकी लहरें
मन के तल से उठकर
आँखों में चमकती हैं—
जैसे भीतर का दीप
अपना अंतिम उजाला बाँट रहा हो।

कभी
हवा का एक हल्का-सा झोंका
अनजाने ही भीतर का कोई
बंद किवाड़ खोल देता है—
विचारों के जमे हुए ताले
टूटने लगते हैं।

तभी समझ आता है—
विरह कितना मौन होता है,
और उसका रोना
कितना गहरा।
वह
फूट-फूटकर टूटता है भीतर—
एक दम मौन।

तभी मन कहता है—
“चलो, यहीं उजाला बो दें—
जहाँ सपनों की देह
अभी
कच्चे दूध-सी गरम और अछूती है।”

रात—
किसी न्याय की पगडंडी-सी
निर्मम होकर भी
अद्भुत पवित्र है।
जो घाव
बरसों रात की देह में
निशब्द सोए थे—
अब
वे दुस्वप्नों-से नहीं,
किसी अँधे चरवाहे के
खोए हुए स्वर-से
करवटें लेते हैं।

अब
जीवन की तीक्ष्ण ऊष्मा नहीं—
सिर्फ़ राख है,
जो स्पर्श में ठंडी होकर भी
बुझी हुई धमनियों-सी
चुभती है।

मैं
उन सबसे दूर खड़ी—
अपने भीतर के
शांति-वृक्ष पर
एक और प्रार्थना टाँग देती हूँ—

कि
जैसे भोर
सारे अँधेरों को
एक-एक कर
सहलाती है—
वैसे ही
उसके नन्हे पदचिह्नों को
उनका मार्ग मिले।

रविवार, नवंबर 2

रेत भी प्रेम में उतरती है


रेत भी प्रेम में उतरती है

✍️ अनीता सैनी
………
रेत —
बहुत धीरे-धीरे बहती है,
जैसे मरुस्थल ने
पानी की स्मृति को
कंठ में रोक लिया हो।

वह जानता है —
प्यास, कोई दोष नहीं —
एक साधना है।

रेत का हर कण
किसी बीते समंदर की याद है —
जो अपनी ही देह में सूख गया,
पर स्वर अब भी नम है।

धूप दिन-भर
परछाई बुनती रहती है;
उसकी उँगलियों पर अब भी
मदार की छाया ठहरी है —
छाया,
थोड़ी-सी ठंडी,
थोड़ी बुझी-बुझी,
थकान में बंधी।

मदार के फूलों का
सूखता जीवन —
उन्होंने अपना स्वर खो दिया,
जैसे समय ने किसी मधुरता को
अनजाने में दंडित कर दिया हो।

मरुस्थल में कोई लहर नहीं उठती,
पर उसकी हर रेखा में
जल की एक अनकही आकांक्षा है।
वह लहर भीतर ही भीतर चलती है —
निराकार, मौन, पर अडिग।

कहीं कुछ नहीं हिलता-डुलता,
फिर भी सब कुछ
बहता रहता है।

प्रतीक्षा यहाँ कोई मुद्रा नहीं,
एक देह है —
जो रेत ओढ़े बैठी है,
और जिसके नेत्रों में अब भी
समंदर का नीला स्थिर है।

वह अब कोई शब्द नहीं,
रेत के भीतर की बनावट है —
शायद इसलिए,
रेत भी प्रेम में उतरती है।

बुधवार, अक्टूबर 22

जड़ में जीवन है


जड़ में जीवन है
(विरह के पार — आत्मा का शोर)
✍️ अनीता सैनी
---
तुम मन की माया के
सारे खेल खेलना,
जब भी मन करे —
तुम प्रेम के दरिया में उतरना,
बार-बार उतरना।

विरह को पढ़ना 
बार-बार पढ़ना,
जैसे पढ़ी हो तुमने
अष्टावक्र की गीता —
जो शब्दों में नहीं,
मौन में खुलती है।

और जब मौन भी
अपने अर्थ खोने लगे,
देह की अग्नि में
अपने ही विचारों का कोयला डालना —
और थोड़ा और धधकना,
जैसे हवन-कुंड में
शाम की आँच सुलगती हो।

और फिर भी न माने मन —
तुम मन के रिक्त पात्र में
थोड़ा और प्रेम भरकर
कविता अर्पित करना।

आत्मा के कुएँ से
एक घूँट जल खींचना,
श्वास की नमी से
थके प्राणों को सींचना —
जैसे पनघट पर
घट के संग गुनगुनाती हो चाँदनी।

तुम विरह को लिखना —
बार-बार लिखना,
जी-भर लिखना,
जैसे किसी के आँसुओं ने ही
तुम्हारे लिए गढ़ा हो
कागज़।

और जब अक्षर भी
कंपकंपाने लगें —
भाल पर शीतल चाँदनी का तिलक करना,

और पृथ्वी की धड़कन पर
ध्यान धरना।

तुम विरह को देखना —
बार-बार, पलट-पलट कर देखना,
जैसे कोई संत
अपने ही ध्यान का साक्षी हो।

पर तुम विरह में उतरना मत —
उसकी जड़ों में जीवन बहता है,
जो तुम्हें
मरने नहीं देगा।


रविवार, अक्टूबर 12

शैवाल से शिला तक


शैवाल से शिला तक

✍️ अनीता सैनी

वह समय —

जो कभी नहीं लौटता,

जिसका अब जीवन में कोई औचित्य नहीं,

वही सबसे अधिक बुलावा भेजता है;

कोस मीनार-सा खड़ा,

अनुगूंज बनकर कहता है —

मेरी नाड़ी में अब भी

एक अनसुनी प्रतीक्षा धड़कती है।



मैं अब भी यहीं हूँ —

जहाँ शब्द थम जाते हैं,

और दृष्टि

प्रतीक्षा के जल में

अपना प्रतिबिंब टटोलती है।


वर्षों से थामी इस डोर का सिरा,

विश्वास की नमी में भीगा है,

पर टूटा नहीं —

बस समय की उँगलियों में

उलझा पड़ा है।


और कहता है —

प्रतीक्षा सूखती नहीं अंत में,

ढूँढती है कि

क्या कोई अब भी वहाँ है,

जहाँ से वह चला था।


जहाँ —

समय की साँसों पर

स्मृतियों के शैवाल उग आए हैं;

वे शैवाल,

हरे हैं — पर थके हुए,

जो अब धीरे-धीरे

एक कोरी

शिला बनते जा रहे हैं।

गुरुवार, अक्टूबर 9

मौन का शास्त्र



मौन का शास्त्र
✍️ अनीता सैनी

स्त्री—
आँचल में सूरज की तपिश छिपा लेती है,
ओस की बूँदों से चाँद को पोंछ देती है।
पग-पग पर शांति के पदचिह्न रचती है,
और अगली सुबह—
दुनिया उसे परिवर्तन की गूँज कहती है।

वह अपने सुख
दूसरों की रोटी में सेंककर बाँट देती है,
अपने स्वप्न
घर की देहरी पर दीपक बनाकर जला देती है,
और लौटकर पाती है केवल—
व्यंग्य, उपेक्षा, अपमान का अंधकार।

कितना गहरा विरोधाभास है यह—
जहाँ त्याग को पूजा की वेदी कहा जाता है,
वहीं त्यागिनी को
संशय और तिरस्कार की जंजीरों में बाँधा जाता है।

वह स्त्री—
अपमान को भी
पवित्रता की वेदी पर चढ़ा देती है,
मानो आत्मा का स्वर्ण
कभी कलंकित हुआ हो।
वह जानती है—
काँटे चुभते हैं तो भी
फूल की सुगंध निर्दोष रहती है।

विचित्र है यह संसार—
त्याग को भक्ति कहकर गाता है,
पर वही स्त्री
जीते-जी अवमानना की चिता में झोंकी जाती है।

फिर भी—
उसकी आत्मा जलती नहीं,
बल्कि और उजली होती जाती है।
जैसे अंधकार बढ़े
तो तारे और प्रखर चमकने लगते हैं।

वह स्त्री—
एक दिन,
अपनी चुप्पी में
जीवन का सबसे गहन शास्त्र लिखती है।


गुरुवार, अक्टूबर 2

सूखा कुआँ

सूखा कुआँ
✍️ अनीता सैनी

…..

जीवन के सारे जतन
धरे के धरे रह जाते हैं,
जब कोई उस कुएँ की जगत पर बैठता है
जहाँ अब पानी नहीं खिंचता—
और वहीं से
स्मृतियों का घड़ा
फिर-फिर भरकर लौट आता है।

वह घड़ा भारी लगता है,
मानो अदृश्य पीड़ा का बोझ
कंधों पर रख दिया गया हो।
फिर भी—
नाउम्मीदी की अंधेरी सुरंग में
यदि धुंधली-सी कोई परछाईं उभर आए,
तो वही परछाईं
दूसरे छोर तक पहुँचने का
सबसे सुगम मार्ग बन जाती है।

मन जानता है—
वह रास्ता किसी न किसी दीवार में
धँस सकता है,
फिर भी वह
दरारों से रिसती रोशनी की
एक किरण खोज लेता है—
मानो किसी अनदेखे हाथ की छुअन,
जो अंधकार के भीतर भी
प्रकाश का आश्वासन देती रहती है।

शुक्रवार, सितंबर 26

चेतना का मानचित्र


चेतना का मानचित्र
✍️ अनीता सैनी
…..
इस मार्ग पर
चेतना का कोई मानचित्र नहीं है।
जहाँ पहुँचकर
उसे सूखने से बचाया जा सके—
वे पगडंडियाँ फिर लौट आती हैं,
जहाँ वह बार-बार ठिठकी थी।

रातें यहाँ धीमी-धीमी साँसें लेती हैं,
और कोई न कोई चेतना
हर सुबह उसके भीतर मरती है।
चेतना का यों मरना
उसकी नमी सोख लेता है।

बेहोशी की चाबी को हल्के से घुमाया जाता है—
नियंत्रित झटके से
शरीर लौट आता है
अपने पुराने रंगों में,
और फिर वहीं रचना शुरू होती है:
एक नई कहानी, वही पुरानी मिथ्या।

मन और मांस का यह खेल पुराना है—
पर हर बार नया प्रतीत होता है।

कमज़ोर चेतनाएँ चुपचाप मिट जाती हैं—
बिना कोई आहट।
कुछ कठोर चेतनाएँ शूल-सी चुभती हैं—
और मरती नहीं;
वे जागती हैं,
टूटे हुए दर्पणों को जोड़कर
अपना चेहरा बनाती हैं,
और उसी नए चेहरे के साथ
दुनिया से पूछती हैं—
"मृत्यु लोक में मैं ज़िंदा हूँ?"

कभी-कभी
एक आवाज़ आँधियों में खो जाती है,
कभी-कभी
एक ख़ामोश हँसी
रेत पर लकीर-सी झलक जाती है;
और साँसें चलने लगती हैं—
किसी मंज़िल की उम्मीद किए बिना—
क्योंकि हर कदम पर
कोई छोटा-सा अंत उसका इंतज़ार करता है।

प्रेम भी पत्तों-सा झरता है,
ताकि नई शाखाओं पर
फिर जन्म ले सके।
और वचन भी धूल में मिलकर
फिर से शब्द बन जाते हैं।

पर जो चेतनाएँ सघन होती हैं—
जो दीठ और ज्वलंत हैं—
वे उभर आती हैं,
बुझती नहीं,
और जगमगाती हैं अपना मार्ग।

दुनिया इसे जीवन कहती है,
पर वह जानती है—
यहाँ हर सुबह एक मौत-सी होती है,
और हर रात एक जन्म की तैयारी;
फिर भी वह मुस्कुराती है,
क्योंकि यह खेल
हर बार कुछ नए किरदारों से मिलता है।

शनिवार, सितंबर 20

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
✍️ अनीता सैनी

…..
अब और लड़ाई
लड़ने का मन नहीं करता,
फिर भी मैं
तेरे लिए यह राह बुहार रही हूँ—
ताकि तेरे पाँव में
काँटे न चुभें,
तेरे सपनों पर
अंधेरे की गाज न गिरे।

अज्ञान के हाथों,
रूढ़ियों और परंपराओं की भारी चादर
तू न ओढ़े—
जिसे समय
वर्तमान बनकर
एक बार अतीत पर डाल चूका है।

बहुत पीड़ा होती है
जब मैं कहती हूँ—
बरगद पौधे नहीं पनपने देता,
उसकी छाँव विचार निगल जाती है,
और उसके फैसले
अहंकार की कोख में
अजनमे मर जाते हैं।
उनकी दीवारें ऊँची नहीं,
बस कैदखाने हैं।

और देख—
एक दिन यही पगडंडियाँ
राजमार्ग बनेंगी,
जहाँ तू निर्भय चल सकेगी।
तेरी साँसों में होगा आकाश,
तेरे स्वप्नों में रोशनी,
तेरी हँसी में
मुक्ति का संगीत।

इसलिए मैं खड़ी हूँ—
समय की झुर्रियाँ और उम्र की धूल की ढाल लिए,
तेरे लिए,
उन सभी पैरों के लिए
जो उजाले के हक़दार हैं।

मुझे पता है—
आत्मा के भीतर दबे विचार
जब बोल नहीं पाते,
तो उनका भी दम घुटता है,
जैसे घूँघट में
सिसकते होंठ
और वे थकी दो आँखें।

रविवार, सितंबर 14

नमी की आवाज़

नमी की आवाज़

✍️ अनीता सैनी


दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,

बादलों ने करवट नहीं बदली—

फिर भी बरसात उतर आती है।


वे पगडंडियाँ जंगल तक नहीं पहुँचतीं,

पेड़ पानी पीकर

नदियों की प्यास भुला देते हैं।


ओसारे में टपकती बोरियाँ

भीतर रखे दाने भिगो देती हैं।

दीवारों से सीलन रिसती है,

कोनों का दिया बुझकर

धुआँ छोड़ जाता है।


दिन—

आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।

साँझ—

कागज़ का थैला सँभालते हुए

अनाज के संग

समय का भार भी ढोती है।


भूल जाते हैं सब—

गली के उस मोड़ पर

वही कौआ काँव-काँव करता है।

पाँवों के निशान मिटते नहीं,

मिट्टी में धँसकर

अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।


 हवा खिड़कियाँ झकझोरती है,

चूल्हे की हांडी उबलकर

घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।


बरामदे के पौधे

अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—

मानो विनम्रता का भार उठाए हों।


रात के हाथ

आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।

सन्नाटा

अपनी थाली बजाकर याद दिलाता है—


कि बरसात अब भी होती है।

और तुम्हारे पाँव हैं कि —

पराई धरती पर भी

अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।