गूँगी गुड़िया
अनीता सैनी
बुधवार, जुलाई 17
गिरह
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शनिवार, जुलाई 13
आह! ज़िंदगी
आह! ज़िंदगी / अनीता सैनी
१२जुलाई २०२४
……
…..और कुछ नहीं
वे स्वीकार्य-सीमा की मेड़ पर खड़े
गहरे स्पर्श करते अंकुरित भाव थे
न जाने कब बरसात का पानी पी कर
अस्वीकार्य हो गए
आह! ज़िंदगी लानत है तुझ पर
भूला देना खेल तो नहीं
इंतजार में हैं वे आँखें वहीं जहाँ बिछड़े थे
बार-बार उसी रास्ते की ओर
पैरों की दौड़ का
ये सच भी तूने भ्रम हेतु गढ़ा
वे नहीं लौटेंगे
कभी नहीं लौटेंगे
सभी कुछ जानते होते हुए भी
मैंने
प्रतीक्षा की बंदनवार में
साँसों की कौड़ी जड़
स्मृतियों के स्वस्तिक
आत्मा की चौखट पर टांग दिए हैं
एक बार फिर तुझे सँवारने के लिए।
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शनिवार, जुलाई 6
बरसाती झोंका
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सोमवार, जून 24
अनुभूति
अनुभूति / अनीता सैनी
२३जून२०२४
……
प्रकृति पर मलकियत जताने
वाले वे सभी उसके मोहताज थे
यह उन्हें नहीं पता था
क्योंकि उन दिनों
वे सभी मोतियाबिंद से जूझ रहे थे
उनके दिमाग़ की गहराई में सिर्फ़
दो ही प्रतिबिंब बनते स्त्री और पुरुष
वे उनके होने का आकलन काया से करते
रूढ़ियाँ उन्हें उनकी जमीन के साथ
कदमों के आंकड़े गिनवातीं
वहाँ सभी कुछ ऊल-जलूल अवस्था में था
जैसे लताओं के सिरे उलझे हों आपस में
कितने ही पुरुषों की काया में
स्त्रियों की आत्मा निवास कर रही थी
और न जाने
कितनी ही स्त्रियों के पास पुरुषों की आत्मा थी
वे सभी स्त्री-पुरुष दुत्कारे जा रहे थे
क्योंकि केंद्र में काया थी
दुत्कारने का
यह खेल सदियों से चल रहा था
सब कुछ क्षणिक होते हुए भी
वे नाक के साथ जात बचाने में लगे थे
उन्होंने कहा-“हम बुद्धि के गेयता है।”
वे सभी मेरे लिए स्त्री थे न पुरुष
वे मात्र मेरी कथा के पात्रों के चरित्र थे
मैं स्वयं के लिए भी एक चरित्र थी
मेरी आत्मा
मेरी काया को पल-पल मरते देख रही थी
और पढ़ रही थी उसका चरित्र
भ्रम की नदी के पार उतरने
और खोने-पाने की होड़ से परे
उन दिनों की यह सबसे सुखद अनुभूति थी।
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बुधवार, जून 19
भावनाएँ
भावनाएँ / अनीता सैनी
१८जून२०२४
……
ठस होती आत्मा में
भावनाएँ जब भी लौटती हैं
माथे पर
तिलिस्मी इन्द्रधनुष सजाए लौटती हैं
मानो तीरथ से लौटी हो
बखान भाव से परे
भावों में
छोटी-छोटी नदियों की निर्मलता
के साथ
उदगम में विलुप्त होने का भाव लिए लौटती हैं
पाँव में छाले, चंदन का टीका
हाथ में पंचामृत
मरुस्थल में पौधा सींचने
दौड़ती हुई आती हैं
कहती हैं-
“तुम्हारे घर के बंद किंवाड़ देखकर भान होता है
अस्त होता सूरज नहीं! हम तुम्हें डंकती हैं!!”
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मंगलवार, मई 14
वह प्रेम में है
वह प्रेम में है /अनीता सैनी
१२मई२०२४
…….
तुम उसे
दुर्बल मत कहो
वह प्रेम में है
पाप-पुण्य से परे
माटी बीज मरने नहीं देती
वह अपनी कोख़ नहीं कुतरती
चिथड़े-चिथड़े हुए प्रेत डरौना को
जब तुमने खेत से उठाकर
आँगन में टाँगा था
तब भी उसने
तुम्हारी मनसा को मरने नहीं दिया
साँझ के साथ उसकी
बढ़ती-घटती डरावनी परछाइयाँ
देख कर भी उसने उसे
ज़िंदा रखा
एक ने
सिला था उसके लिए झिंगोला
चाँद पर बैठी
उस दूसरी स्त्री ने काता था सूत
यह उनके अधूरेपन में उपजे
अध्यात्म के पदचाप नहीं थे
उसकी
पूर्णता की दौड़ थी।
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गुरुवार, अप्रैल 18
खँडहर
चलन को पता है
समय की गोद में तपी औरतें
चूड़ी बिछिया पायल टूटने से
खँडहर नहीं बनती
उन्हें खँडहर बनाया जाता है
चलन का जूते-चप्पल पहनकर
घर से कोसों-दूर
सदियों तक एक ही लिबास में
भूख-प्यास से अतृप्त भटकना
तृप्ति की ख़ोज
रहट का मौन
कुएँ की जगत पर बैठ
उसका
खँडहर, खँडहर… चिल्लाते रहना
खँडहर, खँडहर…का गुंजन ही
उसे गहरे से तोड़कर बनाता है
खँडहर।
…………..
खँडहर / अनीता सैनी
१५अप्रेल २०२४
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शनिवार, अप्रैल 6
उदासियाँ
५अप्रेल२०२४
….
मरुस्थल से कहो कि वह
किसके फ़िराक़ में है?
आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता है?
जलाती हैं साँसें
भटकते भावों से उड़ती धूल
धूसर रंगों ने ढक लिया है अंबर को
आँधीयाँ उठने लगीं हैं
सूखी नहीं हैं नदियाँ
वे सागर से मिलने गईं हैं
धरती के आँचल में
पानी का अंबार है कहो कुछ पल
प्रतीक्षा में ठहरे
बात कमाने की हुई थी
क्या कमाना है?
कब तय हुआ था?
उदासियों के भी खिलते हैं वसंत
तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।
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रविवार, मार्च 31
पाती
पाती / अनीता सैनी
३०मार्च २०२४
……
उस दिन पथ ने
पथिक को पाती लिखी
बेमानी लिखी न झूठ
सावन-भादो के गरजते बादल
सुबह की गुनगुनी धूप लिखी
मीरा के जाने-पहचाने पदचाप
बाट जोहती आँखें
वही विष के प्याले लिखे
पनिहारिन के पायल की आवाज़
कुछ काँटे कुछ पत्थर लिखे
थोड़े फूल और थोड़ी छाँव लिखी
और लिखा
स्मृतियों का पाथेय प्रतीक्षा को
प्रेम के गहरे रंग में रंग देता है
तुम प्रमाण मत देना
क्योंकि जितनी झाँकती है प्रीत
किवाड़ों और खिड़कियों से
उतनी ही तो नहीं होती
मौन ने भी लिखे हैं कई गीत
कई कविताएँ लिखी हैं अबोलेपन ने भी।
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