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रविवार, सितंबर 14

नमी की आवाज़

नमी की आवाज़

✍️ अनीता सैनी


दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,

बादलों ने करवट नहीं बदली—

फिर भी बरसात उतर आती है।


वे पगडंडियाँ जंगल तक नहीं पहुँचतीं,

पेड़ पानी पीकर

नदियों की प्यास भुला देते हैं।


ओसारे में टपकती बोरियाँ

भीतर रखे दाने भिगो देती हैं।

दीवारों से सीलन रिसती है,

कोनों का दिया बुझकर

धुआँ छोड़ जाता है।


दिन—

आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।

साँझ—

कागज़ का थैला सँभालते हुए

अनाज के संग

समय का भार भी ढोती है।


भूल जाते हैं सब—

गली के उस मोड़ पर

वही कौआ काँव-काँव करता है।

पाँवों के निशान मिटते नहीं,

मिट्टी में धँसकर

अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।


 हवा खिड़कियाँ झकझोरती है,

चूल्हे की हांडी उबलकर

घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।


बरामदे के पौधे

अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—

मानो विनम्रता का भार उठाए हों।


रात के हाथ

आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।

सन्नाटा

अपनी थाली बजाकर याद दिलाता है—


कि बरसात अब भी होती है।

और तुम्हारे पाँव हैं कि —

पराई धरती पर भी

अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।

सोमवार, सितंबर 8

अस्तित्व का बहना


अस्तित्व का बहना
नदी और जीवन का आत्मसंवाद
✍️ अनीता सैनी

वह बहती थी—
शांत, धैर्य से भरी,
जैसे नियति ने पहले ही
उसके प्रवाह में अपना नाम लिख दिया हो।
तटों को लाँघती नदी
मानो समय के कगार पर उकेरा गया प्रश्न हो,
फ़टे बादलों की लकीरों पर टँगा एक उत्तरहीन चिन्ह।

पर जब पीड़ा का ज्वार उठता है,
तो वह सोचती—
क्या अपमानजनक प्रहारों को सहना उचित है,
या मुसीबत की गरजती बिजली के विरुद्ध
विद्रोह की बाढ़ बन जाना?

उसके भीतर मृत्यु भी
एक नींद-सी लगती है—
जहाँ थकान का अंत है,
जहाँ हृदय के दर्द
और जीवन की चोटें
किसी अज्ञात सपने में घुल जाती हैं।

पर उसी नींद का भय
उसे बाँध देता है।
क्योंकि मृत्यु एक अनदेखा देश है,
जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।
यही भय विवेक बन जाता है,
और विवेक उसे कायर बना देता है।

वह जानती है—
संकल्प का रंग
अक्सर विचारों की धुंधली आभा से
फीका पड़ जाता है।
इसीलिए उसके बड़े-बड़े स्वप्न
बहाव में रुक जाते हैं।

फिर भी, नदी रुकती नहीं।
वह समझ चुकी है—
कि उसका बहना ही उसका अस्तित्व है,
चाहे बहाव सँभाले या तोड़े।
उसके कटाव से भी
नई मिट्टी उपजती है,
उसके आँसुओं से भी
नया अंकुर जन्म लेता है।

होना या न होना—
नदी के लिए यह प्रश्न नहीं रहा।
उसके लिए बस इतना है—
बहना ही जीवन है,
और पीड़ा ही वह धारा है
जिससे नया स्वप्न फूटता है।

गुरुवार, सितंबर 4

अधूरेपन का आकाश


अधूरेपन का आकाश
✍️ अनीता सैनी

वे दोनों 
अपनी आख़िरी साँसों पर थे,
टहनियों पर टहलते हुए
याद कर रहे थे—
कितनी बार
हवा ने उन्हें झुलाया,
कितनी बार
पंखों ने दिशा खो दी थी।

वे पूछते—
"तुम बताओ,
तुम कितने आज़ाद थे?"
और जवाबों में
सिर्फ़ टूटे घोंसलों की गूँज थी,
बारिश की बूंदों में
पंख भीगने की थकान थी,
और उन बच्चों की आँखें थीं
जो अब भी
नीचे ज़मीन से ताक रहे थे
कोरे आकाश की ओर।

उन्हींने कहा —
हमने उन्हें
ऊँचाई दिखाने का स्वप्न तो दिया,
पर अपने ही कंधों से बाँधे रखा।
हमारे पंख
उनके पंखों के सहारे न बन सके।
हम इतना ही आज़ाद थे
कि उड़ते-उड़ते
यह स्वीकार कर सकें—
हम अपने बच्चों को उड़ना
सिखा तो सकते थे,
पर अपने कंधों का बोझ
कभी उतार न सके।

और जब वे चुप हुए,
आकाश उनकी थकान को
धीरे-धीरे सोखने लगा।
(जैसे चेतना थके हुए स्वप्नों को
अपने में विलीन कर लेती है।)

पेड़ों की शाख़ें
मानो पुराने घरों-सी टूट रही थीं,
हवा में बिखरे पंख
जैसे फूलों की जगह
जलती हुई धातु टपकाते हों।

बच्चों की आँखों में
अब भी उड़ानों का स्वप्न था—
पर उन स्वप्नों के नीचे
धरती की राख चमक रही थी।
(राख— हर आकांक्षा का अंतिम साक्ष्य।)

हर टूटी टहनी से
एक अधूरी प्रार्थना झर रही थी,
हर मौन पंख से
एक अनकहा गीत जन्म ले रहा था।

और उन दोनों पक्षियों के
आख़िरी स्वर में
सिर्फ़ यह भाव गूँज रहा था—
“हर उड़ान अधूरी है,
पर अधूरापन ही
आकाश का सबसे गहरा रंग है।”


शुक्रवार, अगस्त 29

धुँधलों से हरापन

धुँधलों से हरापन
✍️ अनीता सैनी
……..
अफ़सोस— उसने खाना छोड़ दिया,
भूख अब मर चुकी है।
उसने न सत्य निगला,
न अपनी कठोर आलोचना।
हाँ, निगल लिया उसने
कुछ और ही अजीब, उटपटांग—
हरेपन की हठ में
वृक्ष का सूखापन,
सुंदरता की ललक में
अपनी ही काया के काँटे।

वह यहाँ-वहाँ भटका,
अपने ही प्रतिबिंब से उलझता रहा।
प्रियतम विचारों को ठुकराता रहा।
पर बंजर नहीं हुआ—
पुराने बीज
नए अंकुरों की तरह उग आए।

सत्य को देखा उसने,
पर तिरछी, अजनबी नजरों से।
उसकी रोशनी
कभी पूरी तरह छू न सकी;
फिर भी उन्हीं धुँधलों ने
भीतर एक नया हरापन जगा दिया।

यह विस्मय ही था—
कि सबसे बदतर इरादों ने भी
उसका चेहरा उजला कर दिया;
मानो हर भूल ही
उसके प्रेम की गहराई का प्रमाण हो।

अब सब कुछ बीत चुका है—
न प्रमाण की प्यास,
न कसौटियों की तलाश।
बस बह रही है एक नदी—
देवता-सा समर्पण लिए,
तुम्हारे प्रेम के घेरे में
स्वेच्छा से बँधी;
जहाँ भीतर का शून्य
अनंत के आलिंगन से भर सके।

शनिवार, अगस्त 23

कल्पना की चुप्पी

कल्पना की चुप्पी : अधूरे शब्दों का दर्द

✍️ अनीता सैनी

...

और कुछ नहीं—

बस ठठा उठता है वह पल,

जब दरिद्र हो जाती है मेरी कल्पना,

मानो चेतना का स्रोत ही

क्षण भर में सूख गया हो।


शब्दों का अंबार होते हुए भी

विचार रिक्त खड़े रह जाते हैं—

जैसे मानो

मौन ही आखिरी सत्य बनकर

हर तर्क और हर अभिव्यक्ति को

अर्थहीन कर देता है।


मैं लिखना चाहूँ भी तो

शब्द ठिठक जाते हैं,

क्योंकि सामने तुम्हारा प्रतिबिंब है—

जो मेरे अल्प विचारों की सीमा को

छिन्न-भिन्न कर देता है,

और मेरे भावों को उस

अनन्त के सामने लज्जित कर देता है।


मेरी पंक्तियों में जितना समा पाता है,

उससे कहीं अधिक विराट

व्यथा का प्रतिबिंब

कल्पना के दर्पण में झलक उठता है—

जहाँ कोनों की कोरी चुप्पी

तुम्हारी प्रतीक्षा में

बिलखती रह जाती है।


शनिवार, जुलाई 12

धूल में छिपा समंदर


धूल में छिपा समंदर/ अनीता सैनी
११ जुलाई २०२५
…..

सब कोई कुछ न कुछ जानते हैं।
कोई पहाड़ जानता है,
कोई नदी।
कुछ-कुछ लोग तो मरुस्थल भी जानते हैं।
वे जानते हैं —
कैसे एक मरुस्थल समंदर पी गया,
और फिर
कैसे धूल उड़ाने लगा,
कैसे आँधियों का होकर रहने लगा।

पर
जानने की इस आपाधापी में
स्त्रियाँ सबसे अधिक 'डर' को जानती हैं।
उनकी गीली आँखें, सूखी होने से डरती हैं 
वे 
समंदर पी कर सूखा रहना नहीं जानती
वे बस डर को वे भली-भाँति जानती हैं।

वे जानती हैं —
कि उनके पास बहुत कुछ है,
बहुत ही अनमोल कुछ।
सदियाँ लगीं इस 'बहुत कुछ' को
आले-दीवालों की तह में छिपाने में।
वे
इस 'बहुत कुछ' को खोने से डरती हैं।

पर
उनके पास
बहुत कुछ है — यह उन्हें नहीं पता,
कि 
उन्होंने यह सब कैसे और कब जाना।

सोमवार, जून 30

छलावा


छलावा / अनीता सैनी
२८जून २०२५
…..

प्रत्येक स्त्री जानती है —
हर दूसरी स्त्री की पीठ पर
जन्मजात
एक छलावा बैठा होता है।

फिर भी,
न जाने —
किस कवि की, किस कविता की
पंक्तियों के
सोए भाव बोल पड़े हैं—

कि वह,
गौखों और झरोखों से झाँकता
आसमान का एक टूटता तारा है,
जिसके कंधे पर मन्नतों की पोटली है।

उसके पास न पंख हैं, न आँखें —
फिर भी वह
देखना और उड़ना सिखाता है।

सूरज की
पहली किरण का रसपान कर
वह उठता है,
इसीलिए
पूर्णिमा के चाँद-सा चमकता है।

और अंततः —
स्त्री की दृष्टि में उतरकर
वह
एक नया आकाश रच देता है।

शुक्रवार, जून 20

दरकन

दरकन
……

कविता / अनीता सैनी
१७ जून २०२५

आओ! कुछ देर बैठो!!
दिखाऊँ तुम्हें
एक टूटा हुआ आदमी —
हौसले को
रफ़ू करता हुआ।

अभावग्रस्त —
न ढांडस की डोर,
न अपनेपन का थान,
न पराएपन की कतरन।

"टूटा हुआ आदमी?
अभावग्रस्त?
ढांडस की डोर?
अपनेपन का थान?
पराएपन की कतरन?"
चश्मे से बाहर झाँकती
आँखें बोलीं।

हाँ!
आदमी अपने से
टूट जाता है,
दरक जाता है —
स्त्री थोड़ी है वह
जो तोड़ी जाएगी —
इस बार नाक-मुँह
एक साथ बोले।



गुरुवार, जून 19

मीरा — एक अंतरध्वनि


मीरा — एक अंतरध्वनि
कविता / अनीता सैनी
 १७ जून २०२५
....

अंतः स्वर 
 ध्वनि और दृश्य का
 एक गहरा द्वंद्व है।

धरती के गर्भ से
 फूटा था जो
 उष्ण लावा —
 अब शीतल राख बन चुका है।

बिखरे भावों में उलझा
 एक चोटिल जीवन —
 जो जीना तक
 भूल चुका है।

हाथों में
 एकतारा — या तानपुरा,
 वाणी में
 झरता है
 निस्संग प्रेम…

यह तुम्हारे
 दृश्यों का द्वंद्व है —
 जहाँ
 ध्वनि को तुम “भजन” कहते हो,
 और
 दृश्य को — “मीराँ”।