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गुरुवार, अप्रैल 18

खँडहर

चलन  को पता है

समय की गोद में तपी औरतें 

चूड़ी बिछिया पायल टूटने से 

खँडहर नहीं बनती 

उन्हें खँडहर बनाया जाता है

 चलन का 

जूते-चप्पल पहनकर 

घर से कोसों-दूर 

सदियों तक एक ही लिबास में 

भूख-प्यास से अतृप्त भटकना 

तृप्ति की ख़ोज  

रहट का मौन 

कुएँ की जगत पर बैठ

उसका 

खँडहर, खँडहर… चिल्लाते रहना 

खँडहर, खँडहर…का गुंजन ही

उसे गहरे से तोड़कर बनाता है

खँडहर।

…………..

खँडहर / अनीता सैनी 

१५अप्रेल २०२४

शनिवार, अप्रैल 6

उदासियाँ

उदासियाँ / अनीता सैनी 

५अप्रेल२०२४

….

मरुस्थल से कहो कि वह 

किसके फ़िराक़ में है?

आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता है?

 जलाती हैं साँसें 

भटकते भावों से उड़ती धूल 

धूसर रंगों ने ढक लिया है अंबर को 

आँधीयाँ उठने लगीं हैं 

 सूखी नहीं हैं नदियाँ 

वे सागर से मिलने गईं हैं 

धरती के आँचल में

 पानी का अंबार है कहो कुछ पल 

प्रतीक्षा में ठहरे 

बात कमाने की हुई थी 

क्या कमाना है?

कब तय हुआ था?

उदासियों के भी खिलते हैं वसंत 

तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।