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रविवार, फ़रवरी 26

औरतें


तुम ठीक ही कहते हो!

ये औरतें भी ना…बड़ी भुलक्कड़ होती हैं 

बड़ी जल्दी ही सब भूल जाती हैं

भूल जाती हैं!

चुराई उम्र की शिकायत दर्ज करवाना

ऐसी घुलती-मिलती हैं हवा संग कि 

धुप-छाव का ख़याल ही भूल जाती हैं 

भूलने की बड़ी भारी बीमारी होती है इन्हें

याद ही कहाँ रहता है कुछ

चप्पल की साइज़ तो छोड़ो

अपने ही पैरों के निशान भूल जाती हैं 

मान-सम्मान का ओढ़े उधड़ा खेश 

गस खाती ख़ुद से बतियाती रहती हैं

भूल की फटी चादर बिछाए धरणी-सी 

परिवार के स्वप्न सींचती रहती हैं 

बचपन का आँगन तो भूली सो भूली

ख़ून के रिश्तों के साथ-साथ भूल जाती हैं!

चूल्हे की गर्म रोटी का स्वाद

रात की बासी रोटी बड़े चाव से खातीं 

अन्न को सहेजना सिखाती हैं 

सच ही कहते हो तुम

ये औरतें भी न बड़ी भुलक्कड़ होती हैं 

समय के साथ सब भूल जाती हैं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


सोमवार, फ़रवरी 6

चरवाहा


वहाँ! 

उस छोर से फिसला था मैं,

पेड़ के पीछे की 

पहाड़ी की ओर इशारा किया उसने

और एकटक घूरता रहा  

पेड़  या पहाड़ी ?

असमंजस में था मैं!


हाथ नहीं छोड़ा किसी ने 

न मैंने छुड़ाया 

बस, मैं फिसल गया!

पकड़ कमज़ोर जो थी रिश्तों की

तुम्हारी या उनकी?

सतही तौर पर हँसता रहा वह

बाबूजी! 

इलाज चल रहा है

कोई गंभीर चोट नहीं आई

बस, रह-रहकर दिल दुखता है

हर एक तड़प पर आह निकलती है।


वह हँसता रहा स्वयं पर 

एक व्यंग्यात्मक हँसी 


कहता है बाबूजी!

सौभाग्यशाली होते हैं वे इंसान

जिन्हें अपनों के द्वारा ठुकरा दिया जाता है

या जो स्वयं समाज को ठुकरा देते हैं

इस दुनिया के नहीं होते 

ठुकराए हुए लोग 

वे अलहदा दुनिया के बासिन्दे होते हैं,

एकदम अलग दुनिया के।


ठहराव होता है उनमें

वे चरवाहे नहीं होते 

दौड़ नहीं पाते वे 

बाक़ी इंसानों की तरह,

क्योंकि उनमें 

दौड़ने का दुनियावी हुनर नहीं होता 

वे दर्शक होते हैं

पेड़ नहीं होते 

और न ही पंछी होते हैं

न ही काया का रूपान्तर करते हैं 

हवा, पानी और रेत जैसे होते हैं वे!


यह दुनिया 

फ़िल्म-भर होती है मानो उनके लिए 

नायक होते हैं 

नायिकाएँ होती हैं 

और वे बहिष्कृत

तिरस्कृत किरदार निभा रहे होते हैं,

किसने किसका तिरस्कार किया

यह भी वे नहीं जान पाते

वे मूक-बधिर...

उन्हें प्रेम होता है शून्य से 

इसी की ध्वनि और नाद

आड़ोलित करती है उन्हें


उन्हें सुनाई देती है 

सिर्फ़ इसी की पुकार

रह-रहकर 


इस दुनिया से 

उस दुनिया में

पैर रखने के लिए रिक्त होना होता है

सर्वथा रिक्त।

रिक्तता की अनुभूति

पँख प्रदान करती है उस दुनिया में जाने के लिए

जैसे प्रस्थान-बिंदु हो

कहते हुए-

वह फिर हँसता है स्वयं पर 

एक व्यंग्यात्मक हँसी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'