सैनिकों की प्रीत को परिमाण में न तोलना
वे प्राणरुपी पुष्प देश को हैं सौंपतें।
स्वप्न नहीं देखतीं उनकी कोमल आँखें
नींद की आहूति जीवन अग्नि में हैं झोंकते।
ऐंठन की शोथ सताती,चेतना गति करती।
ख़तरे के शंख उनके कानों में भी हैं बजते।
फिर भी दहलीज़ की पुकार अनसुनी कर
दुराशा मिटाने को दर्द भरी घुटन हैं पीते।
वे गिलहरी-से कोटरों से नहीं झाँकतें
नहीं तलाशते कंबल में संबल शीश पर आसमान लिए।
नहीं तलाशते कंबल में संबल शीश पर आसमान लिए।
द्वेष की दुर्गंध से दूर मानवता महकाते
ऐसे माटी के लाल मनमोही मन में हैं रम जाते।
©अनीता सैनी 'दीप्ति'