उदासियाँ / अनीता सैनी
५अप्रेल२०२४
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मरुस्थल से कहो कि वह
किसके फ़िराक़ में है?
आज-कल बुझा-बुझा-सा रहता है?
जलाती हैं साँसें
भटकते भावों से उड़ती धूल
धूसर रंगों ने ढक लिया है अंबर को
आँधीयाँ उठने लगीं हैं
सूखी नहीं हैं नदियाँ
वे सागर से मिलने गईं हैं
धरती के आँचल में
पानी का अंबार है कहो कुछ पल
प्रतीक्षा में ठहरे
बात कमाने की हुई थी
क्या कमाना है?
कब तय हुआ था?
उदासियों के भी खिलते हैं वसंत
तुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 07 अप्रैल 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंजलाती हैं साँसें
जवाब देंहटाएंभटकते भावों से उड़ती धूल
धूसर रंगों ने ढक लिया है अंबर को
लाजबाब सृजन
वाह! प्रिय अनीता ,बेहतरीन सृजन..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंउदासियों के भी खिलते हैं वसंत
जवाब देंहटाएंतुम गहरे में उतरे नहीं, वे तैरना भूल गईं।
बहुत गहराई इन शब्दों में
बेहतरीन रचना🙏
बहुत ही सुन्दर रचना।
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