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बुधवार, जुलाई 19

ठीक कहा!


ठीक कहा!

यह कहना कितना कठिन होता है

दुपहरी के लिए

जब वह

तप रही होती है सूरज के ताप से

विचलित अंबर

ओजोन के टूटने की पीड़ा

पीते हुए

रफ़ू टूटे तारों से करता है

कुछ पल ठहरती है रात

बनती है सहचर

नदी हथेली की रेखाओं से होकर

पड़ते-उठते गुज़रती चली जाती है

पहाड़ पर वापस न लौटने के संकेत के साथ

यहाँ नदी का न लौटना

नाराज़गी नहीं नियति है

और

तुम कहते हो-

"माँ काफ़ी नहीं होती बच्चों के लिए।"


अनीता सैनी 'दीप्ति'

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह। बहुत सुंदर।
    हृदयस्पर्शीय।

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  2. बहुत ही गहरी भावनाएं ... कई बार इनको बताना आसान नहीं होता ... बहुत भावपूर्ण ,..

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  3. हर पंक्ति में गूढ और गहन भाव

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