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शनिवार, अगस्त 19

राग

राग /अनीता सैनी 'दीप्ति'
वे राग में डूबे मनुष्य थे 
मधुर राग गुनगुनाते रहते थे 
हाथों में गुलाबी परचा 
कहते -
प्रेम का नग़्मा पढ़ाते हैं 
कंठ सुरों का संगम  
वाणी में भाव हिलोरे भरते
जी रहे थे जैसे
जीती है नदी समंदर की प्रीत में
महसूस करते थे संगीत वैसे
जैसे शिशु महसूस करता है माँ की गंध
कोयल के गर्भ से जन्मे 
इससे कमतर कहना अन्याय होगा 
फिर क्यों?
अतृप्त हृदय आँखें प्यासी थी!

मैंने  कहा-
तुम बैराग में डूबकर देखो
एक घूँट ही सही,ज़रा पी कर देखो
सूखा हो दरख़्त कोंपल फूट जाती हैं
हृदय तृप्त, आँखें झूम जाती हैं
इसमें गहरा और भी गहरा 
 संगीत है पसरा 
कोलाहल हो या एकांत 
हृदय में संगीत का झरना बहता है।

वे मुझ पर हँसे और उठकर चले गए।

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