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बुधवार, सितंबर 6

चूक


चूक / अनीता सैनी 'दीप्ति'

….

प्रिये ने 

बादलों पर घोर अविश्वास जताते हुए 

खिन्न हृदय से चिट्ठी चाँद को सुपुर्द की 

मैंने कहा- यक्ष को पीड़ा होगी

उन्होंने कहा-

बादल भटक जाते हैं।

  यही कोई

रात का अंतिम पहर रहा होगा

चाँद दरीचे में उतरा ही रहा था 

तारों ने आँगन की बत्ती बुझा रखी थी 

रात्रि गहरा काला ग़ुबार लिए खड़ी थी

जैसे आषाढ़ बरसने को बेसब्रा हो

और कह रहा हो-

'नैना मोरे तरस गए आजा बलम परदेशी।'

 ऊँघते इंतज़ार की पलकें झपकी 

चेतना चिट्ठी पढ़ने से चूक गई

चुकने पर उठी गहरी टीस

जीवन ने नमक के स्वाद का

पहला निवाला चखा।

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