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रविवार, अक्टूबर 12

शैवाल से शिला तक


शैवाल से शिला तक

✍️ अनीता सैनी

वह समय —

जो कभी नहीं लौटता,

जिसका अब जीवन में कोई औचित्य नहीं,

वही सबसे अधिक बुलावा भेजता है;

कोस मीनार-सा खड़ा,

अनुगूंज बनकर कहता है —

मेरी नाड़ी में अब भी

एक अनसुनी प्रतीक्षा धड़कती है।



मैं अब भी यहीं हूँ —

जहाँ शब्द थम जाते हैं,

और दृष्टि

प्रतीक्षा के जल में

अपना प्रतिबिंब टटोलती है।


वर्षों से थामी इस डोर का सिरा,

विश्वास की नमी में भीगा है,

पर टूटा नहीं —

बस समय की उँगलियों में

उलझा पड़ा है।


और कहता है —

प्रतीक्षा सूखती नहीं अंत में,

ढूँढती है कि

क्या कोई अब भी वहाँ है,

जहाँ से वह चला था।


जहाँ —

समय की साँसों पर

स्मृतियों के शैवाल उग आए हैं;

वे शैवाल,

हरे हैं — पर थके हुए,

जो अब धीरे-धीरे

एक कोरी

शिला बनते जा रहे हैं।

गुरुवार, अक्टूबर 9

मौन का शास्त्र



मौन का शास्त्र
✍️ अनीता सैनी

स्त्री—
आँचल में सूरज की तपिश छिपा लेती है,
ओस की बूँदों से चाँद को पोंछ देती है।
पग-पग पर शांति के पदचिह्न रचती है,
और अगली सुबह—
दुनिया उसे परिवर्तन की गूँज कहती है।

वह अपने सुख
दूसरों की रोटी में सेंककर बाँट देती है,
अपने स्वप्न
घर की देहरी पर दीपक बनाकर जला देती है,
और लौटकर पाती है केवल—
व्यंग्य, उपेक्षा, अपमान का अंधकार।

कितना गहरा विरोधाभास है यह—
जहाँ त्याग को पूजा की वेदी कहा जाता है,
वहीं त्यागिनी को
संशय और तिरस्कार की जंजीरों में बाँधा जाता है।

वह स्त्री—
अपमान को भी
पवित्रता की वेदी पर चढ़ा देती है,
मानो आत्मा का स्वर्ण
कभी कलंकित हुआ हो।
वह जानती है—
काँटे चुभते हैं तो भी
फूल की सुगंध निर्दोष रहती है।

विचित्र है यह संसार—
त्याग को भक्ति कहकर गाता है,
पर वही स्त्री
जीते-जी अवमानना की चिता में झोंकी जाती है।

फिर भी—
उसकी आत्मा जलती नहीं,
बल्कि और उजली होती जाती है।
जैसे अंधकार बढ़े
तो तारे और प्रखर चमकने लगते हैं।

वह स्त्री—
एक दिन,
अपनी चुप्पी में
जीवन का सबसे गहन शास्त्र लिखती है।


गुरुवार, अक्टूबर 2

सूखा कुआँ

सूखा कुआँ
✍️ अनीता सैनी

…..

जीवन के सारे जतन
धरे के धरे रह जाते हैं,
जब कोई उस कुएँ की जगत पर बैठता है
जहाँ अब पानी नहीं खिंचता—
और वहीं से
स्मृतियों का घड़ा
फिर-फिर भरकर लौट आता है।

वह घड़ा भारी लगता है,
मानो अदृश्य पीड़ा का बोझ
कंधों पर रख दिया गया हो।
फिर भी—
नाउम्मीदी की अंधेरी सुरंग में
यदि धुंधली-सी कोई परछाईं उभर आए,
तो वही परछाईं
दूसरे छोर तक पहुँचने का
सबसे सुगम मार्ग बन जाती है।

मन जानता है—
वह रास्ता किसी न किसी दीवार में
धँस सकता है,
फिर भी वह
दरारों से रिसती रोशनी की
एक किरण खोज लेता है—
मानो किसी अनदेखे हाथ की छुअन,
जो अंधकार के भीतर भी
प्रकाश का आश्वासन देती रहती है।

शुक्रवार, सितंबर 26

चेतना का मानचित्र


चेतना का मानचित्र
✍️ अनीता सैनी
…..
इस मार्ग पर
चेतना का कोई मानचित्र नहीं है।
जहाँ पहुँचकर
उसे सूखने से बचाया जा सके—
वे पगडंडियाँ फिर लौट आती हैं,
जहाँ वह बार-बार ठिठकी थी।

रातें यहाँ धीमी-धीमी साँसें लेती हैं,
और कोई न कोई चेतना
हर सुबह उसके भीतर मरती है।
चेतना का यों मरना
उसकी नमी सोख लेता है।

बेहोशी की चाबी को हल्के से घुमाया जाता है—
नियंत्रित झटके से
शरीर लौट आता है
अपने पुराने रंगों में,
और फिर वहीं रचना शुरू होती है:
एक नई कहानी, वही पुरानी मिथ्या।

मन और मांस का यह खेल पुराना है—
पर हर बार नया प्रतीत होता है।

कमज़ोर चेतनाएँ चुपचाप मिट जाती हैं—
बिना कोई आहट।
कुछ कठोर चेतनाएँ शूल-सी चुभती हैं—
और मरती नहीं;
वे जागती हैं,
टूटे हुए दर्पणों को जोड़कर
अपना चेहरा बनाती हैं,
और उसी नए चेहरे के साथ
दुनिया से पूछती हैं—
"मृत्यु लोक में मैं ज़िंदा हूँ?"

कभी-कभी
एक आवाज़ आँधियों में खो जाती है,
कभी-कभी
एक ख़ामोश हँसी
रेत पर लकीर-सी झलक जाती है;
और साँसें चलने लगती हैं—
किसी मंज़िल की उम्मीद किए बिना—
क्योंकि हर कदम पर
कोई छोटा-सा अंत उसका इंतज़ार करता है।

प्रेम भी पत्तों-सा झरता है,
ताकि नई शाखाओं पर
फिर जन्म ले सके।
और वचन भी धूल में मिलकर
फिर से शब्द बन जाते हैं।

पर जो चेतनाएँ सघन होती हैं—
जो दीठ और ज्वलंत हैं—
वे उभर आती हैं,
बुझती नहीं,
और जगमगाती हैं अपना मार्ग।

दुनिया इसे जीवन कहती है,
पर वह जानती है—
यहाँ हर सुबह एक मौत-सी होती है,
और हर रात एक जन्म की तैयारी;
फिर भी वह मुस्कुराती है,
क्योंकि यह खेल
हर बार कुछ नए किरदारों से मिलता है।

शनिवार, सितंबर 20

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
✍️ अनीता सैनी

…..
अब और लड़ाई
लड़ने का मन नहीं करता,
फिर भी मैं
तेरे लिए यह राह बुहार रही हूँ—
ताकि तेरे पाँव में
काँटे न चुभें,
तेरे सपनों पर
अंधेरे की गाज न गिरे।

अज्ञान के हाथों,
रूढ़ियों और परंपराओं की भारी चादर
तू न ओढ़े—
जिसे समय
वर्तमान बनकर
एक बार अतीत पर डाल चूका है।

बहुत पीड़ा होती है
जब मैं कहती हूँ—
बरगद पौधे नहीं पनपने देता,
उसकी छाँव विचार निगल जाती है,
और उसके फैसले
अहंकार की कोख में
अजनमे मर जाते हैं।
उनकी दीवारें ऊँची नहीं,
बस कैदखाने हैं।

और देख—
एक दिन यही पगडंडियाँ
राजमार्ग बनेंगी,
जहाँ तू निर्भय चल सकेगी।
तेरी साँसों में होगा आकाश,
तेरे स्वप्नों में रोशनी,
तेरी हँसी में
मुक्ति का संगीत।

इसलिए मैं खड़ी हूँ—
समय की झुर्रियाँ और उम्र की धूल की ढाल लिए,
तेरे लिए,
उन सभी पैरों के लिए
जो उजाले के हक़दार हैं।

मुझे पता है—
आत्मा के भीतर दबे विचार
जब बोल नहीं पाते,
तो उनका भी दम घुटता है,
जैसे घूँघट में
सिसकते होंठ
और वे थकी दो आँखें।

रविवार, सितंबर 14

नमी की आवाज़

नमी की आवाज़

✍️ अनीता सैनी


दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,

बादलों ने करवट नहीं बदली—

फिर भी बरसात उतर आती है।


वे पगडंडियाँ जंगल तक नहीं पहुँचतीं,

पेड़ पानी पीकर

नदियों की प्यास भुला देते हैं।


ओसारे में टपकती बोरियाँ

भीतर रखे दाने भिगो देती हैं।

दीवारों से सीलन रिसती है,

कोनों का दिया बुझकर

धुआँ छोड़ जाता है।


दिन—

आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।

साँझ—

कागज़ का थैला सँभालते हुए

अनाज के संग

समय का भार भी ढोती है।


भूल जाते हैं सब—

गली के उस मोड़ पर

वही कौआ काँव-काँव करता है।

पाँवों के निशान मिटते नहीं,

मिट्टी में धँसकर

अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।


 हवा खिड़कियाँ झकझोरती है,

चूल्हे की हांडी उबलकर

घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।


बरामदे के पौधे

अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—

मानो विनम्रता का भार उठाए हों।


रात के हाथ

आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।

सन्नाटा

अपनी थाली बजाकर याद दिलाता है—


कि बरसात अब भी होती है।

और तुम्हारे पाँव हैं कि —

पराई धरती पर भी

अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।

सोमवार, सितंबर 8

अस्तित्व का बहना


अस्तित्व का बहना
नदी और जीवन का आत्मसंवाद
✍️ अनीता सैनी

वह बहती थी—
शांत, धैर्य से भरी,
जैसे नियति ने पहले ही
उसके प्रवाह में अपना नाम लिख दिया हो।
तटों को लाँघती नदी
मानो समय के कगार पर उकेरा गया प्रश्न हो,
फ़टे बादलों की लकीरों पर टँगा एक उत्तरहीन चिन्ह।

पर जब पीड़ा का ज्वार उठता है,
तो वह सोचती—
क्या अपमानजनक प्रहारों को सहना उचित है,
या मुसीबत की गरजती बिजली के विरुद्ध
विद्रोह की बाढ़ बन जाना?

उसके भीतर मृत्यु भी
एक नींद-सी लगती है—
जहाँ थकान का अंत है,
जहाँ हृदय के दर्द
और जीवन की चोटें
किसी अज्ञात सपने में घुल जाती हैं।

पर उसी नींद का भय
उसे बाँध देता है।
क्योंकि मृत्यु एक अनदेखा देश है,
जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।
यही भय विवेक बन जाता है,
और विवेक उसे कायर बना देता है।

वह जानती है—
संकल्प का रंग
अक्सर विचारों की धुंधली आभा से
फीका पड़ जाता है।
इसीलिए उसके बड़े-बड़े स्वप्न
बहाव में रुक जाते हैं।

फिर भी, नदी रुकती नहीं।
वह समझ चुकी है—
कि उसका बहना ही उसका अस्तित्व है,
चाहे बहाव सँभाले या तोड़े।
उसके कटाव से भी
नई मिट्टी उपजती है,
उसके आँसुओं से भी
नया अंकुर जन्म लेता है।

होना या न होना—
नदी के लिए यह प्रश्न नहीं रहा।
उसके लिए बस इतना है—
बहना ही जीवन है,
और पीड़ा ही वह धारा है
जिससे नया स्वप्न फूटता है।

गुरुवार, सितंबर 4

अधूरेपन का आकाश


अधूरेपन का आकाश
✍️ अनीता सैनी

वे दोनों 
अपनी आख़िरी साँसों पर थे,
टहनियों पर टहलते हुए
याद कर रहे थे—
कितनी बार
हवा ने उन्हें झुलाया,
कितनी बार
पंखों ने दिशा खो दी थी।

वे पूछते—
"तुम बताओ,
तुम कितने आज़ाद थे?"
और जवाबों में
सिर्फ़ टूटे घोंसलों की गूँज थी,
बारिश की बूंदों में
पंख भीगने की थकान थी,
और उन बच्चों की आँखें थीं
जो अब भी
नीचे ज़मीन से ताक रहे थे
कोरे आकाश की ओर।

उन्हींने कहा —
हमने उन्हें
ऊँचाई दिखाने का स्वप्न तो दिया,
पर अपने ही कंधों से बाँधे रखा।
हमारे पंख
उनके पंखों के सहारे न बन सके।
हम इतना ही आज़ाद थे
कि उड़ते-उड़ते
यह स्वीकार कर सकें—
हम अपने बच्चों को उड़ना
सिखा तो सकते थे,
पर अपने कंधों का बोझ
कभी उतार न सके।

और जब वे चुप हुए,
आकाश उनकी थकान को
धीरे-धीरे सोखने लगा।
(जैसे चेतना थके हुए स्वप्नों को
अपने में विलीन कर लेती है।)

पेड़ों की शाख़ें
मानो पुराने घरों-सी टूट रही थीं,
हवा में बिखरे पंख
जैसे फूलों की जगह
जलती हुई धातु टपकाते हों।

बच्चों की आँखों में
अब भी उड़ानों का स्वप्न था—
पर उन स्वप्नों के नीचे
धरती की राख चमक रही थी।
(राख— हर आकांक्षा का अंतिम साक्ष्य।)

हर टूटी टहनी से
एक अधूरी प्रार्थना झर रही थी,
हर मौन पंख से
एक अनकहा गीत जन्म ले रहा था।

और उन दोनों पक्षियों के
आख़िरी स्वर में
सिर्फ़ यह भाव गूँज रहा था—
“हर उड़ान अधूरी है,
पर अधूरापन ही
आकाश का सबसे गहरा रंग है।”


शुक्रवार, अगस्त 29

धुँधलों से हरापन

धुँधलों से हरापन
✍️ अनीता सैनी
……..
अफ़सोस— उसने खाना छोड़ दिया,
भूख अब मर चुकी है।
उसने न सत्य निगला,
न अपनी कठोर आलोचना।
हाँ, निगल लिया उसने
कुछ और ही अजीब, उटपटांग—
हरेपन की हठ में
वृक्ष का सूखापन,
सुंदरता की ललक में
अपनी ही काया के काँटे।

वह यहाँ-वहाँ भटका,
अपने ही प्रतिबिंब से उलझता रहा।
प्रियतम विचारों को ठुकराता रहा।
पर बंजर नहीं हुआ—
पुराने बीज
नए अंकुरों की तरह उग आए।

सत्य को देखा उसने,
पर तिरछी, अजनबी नजरों से।
उसकी रोशनी
कभी पूरी तरह छू न सकी;
फिर भी उन्हीं धुँधलों ने
भीतर एक नया हरापन जगा दिया।

यह विस्मय ही था—
कि सबसे बदतर इरादों ने भी
उसका चेहरा उजला कर दिया;
मानो हर भूल ही
उसके प्रेम की गहराई का प्रमाण हो।

अब सब कुछ बीत चुका है—
न प्रमाण की प्यास,
न कसौटियों की तलाश।
बस बह रही है एक नदी—
देवता-सा समर्पण लिए,
तुम्हारे प्रेम के घेरे में
स्वेच्छा से बँधी;
जहाँ भीतर का शून्य
अनंत के आलिंगन से भर सके।