तुम कह देना / अनीता सैनी
 २२ मार्च २०२५
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एक गौरैया थी, जो उड़ गई,
 एक मनुष्य था, वह खो गया।
 तुम तो कह देना
 इस बार,
 कुछ भी कह देना,
 जो मन चाहे, लिख देना,
 जो मन चाहे, कह देना।
कहना भर ही उगता है,
अनकहा
खूंटियों की गहराइयों में दब जाता है,
 समय का चक्र निगल जाता है।
ये जो मौन खड़ी दीवारें हैं न,
 जिन पर
 घड़ी की टिक-टिक सुनाई देती है,
 इनकी
 नींव में भी करुणा की नदी बहती है,
 विचारों की अस्थियाँ लिए।

 
