सिसक रहा सन्नाटा,
ख़ामोशियों की गुहार यही ,
रिक्त हो रही साँसों का ,
क्या यही हिसाब दोगे ?
बेज़ुबान शब्दों को ,
कब जुबान दोगे ?
जल रहे अंहकार में रिश्ते ,
मानवता की ममता क्या,
यही सिला दोगे ?
ठिठुर रहे जज़्बात ,
सपनों का जला अलाव ,
स्वार्थ का जामा पहन ,
ऊष्ण की करे पुकार,
ठिठुर रहे ममत्त्व को क्या,
यूँ हीं ठुकरा दोगे ?
रजत मेखला की कालिख ,
मन में मचाये उत्पात,
अंजानी अँगुली ढूंढ रहा मन ,
खुलवा सकू रिश्तों का बंद ,
ओझल-सी इन राहों में क्या,
यूँ ही ठुकरा दोगे ?
उफान आते आदतन से,
रिश्तों को चखकर देखा,
व्यवहार की लवणता परखे ,
दीन की हालत देख क्या,
यूँ ही ठुकरा तो न दोगे ?
© अनीता सैनी
अति उत्तम सखी।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार प्रिय सखी दीपा जी
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