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शुक्रवार, दिसंबर 6

शलभ-सी प्रीत



 चंद्रभानु को विभास का मूल्य बता, 
 तिमिर को राह दिखा रहे, 
खारे मोतियों को थामे अँजुरी में, 
परोपकार का हार पिरो रहे |

ज़माने का जतन नहीं, 
कांस के खिले फूल फुसफुसा रहे, 
मिलेंगे कँबल दान में, 
इस बार ठंड को वे यों समझा रहे |

शलभ-सी प्रीत पिरोये हृदय में, 
  ऊँघती तड़प कलिकाल में मुस्कुरायी,  
उम्मीद नयनों में ठहर,चराग़ जलेंगे, 
पवन से यों  गुस्ताख़ियाँ जता रहे |

नदी के तटबंध अधीर मन से सुगबुगाये, 
बदली जो राह उसी राह पर थर्राये,  
शायद उद्गम मेरा मोड़ने अब,  
 नये ठेकेदार धीर मन से आ रहे |

चीरती हवा पीड़ा और पराजय को  , 
मिथ्या-तृप्ति,भटकन समेटे समय को कचोटती रही, 
बियाबान में ठंड के थपेड़ो से, 
ठिठुरते कांस अस्तित्त्व अपना जता रहे |

©अनीता सैनी 

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. शुद्ध हिन्दी की शानदार पंक्तियाँ।

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    1. निशब्द हूँ आदरणीय आपकी सुन्दर समीक्षा से बहुत-बहुत शुक्रिया आपका
      सादर

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  3. नके तटबंध अधीर मन से सुगबुगाये,
    बदली जो राह उसी राह पर झगड़ते रहे,
    शायद उद्गम मेरा मोड़ने अब,
    नये ठेकेदार धीर मन से आ रहे
    नये जीवनदर्शन को समेटे मौलिक लेखन प्रिय अनीता | सस्नेह शुभकामनायें और बधाई ||

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    1. सादर आभार आदरणीया रेणु दीदी जी सुन्दर और सारगर्भित समीक्षा हेतु. आपका स्नेह और सानिध्य यों ही बना रहे.
      सादर

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  4. बहुत ही अच्छी कविता |आपका हार्दिक आभार

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  5. ज़माने का जतन नहीं,
    कांस के खिले फूल फुसफुसा रहे,
    मिलेंगे कँबल दान में,
    इस बार ठंड को वे यों समझा रहे |बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  6. नदी के तटबंध अधीर मन से सुगबुगाये,
    बदली जो राह उसी राह पर थर्राते रहे,
    शायद उद्गम मेरा मोड़ने अब,
    नये ठेकेदार धीर मन से आ रहे |
    बेहद उम्दा। मानवीकरण का रोचक प्रयोग। वाह।

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    1. तहे दिल से आभार अनुज उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर स्नेह

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