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गुरुवार, अगस्त 25

मौन से मौन तक



ऐसा नहीं है कि.

बहुत पहले पढ़ना नहीं आता था उसे 

उस वक़्त भी पढ़ती थी 

वह सब कुछ जो कोई नहीं पढ़ पाता था

 बुज़ुर्गोँ का जोड़ों से जकड़ा दर्द 

उनका बेवजह पुकारना 

समय की भीत पर आई सीलन

सीलन से बने भित्ति-चित्रों को 

पिता की ख़ामोशी में छिपे शब्द 

माँ की व्यस्तता में बहते भाव 

भाई-बहनों की अपेक्षाएँ

वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम

उस समय ज़िंदा थी वह

स्वर था उसमें 

हवा और पानी की तरह

बहुत दूर तक सुनाई देता था 

ज़िंदा हवाएँ बहुधा अखरती हैं 

परंतु तब वह प्राय: बोलती थी

गाती-गुनगुनाती

सभी को सुनाती थी

पसंद-नापसंद के क़िस्से 

 क्या सोचती है

उसकी इच्छाएँ क्या हैं?

ज़िद करती थी ख़ुद से 

रुठे सपनों को मनाने की 

अब भी पढ़ती है निस्वार्थ भाव से 

स्वतः पढ़ा जाता है

आँखें बंद करने पर भी पढ़ा जाता है

परंतु अब वह बोलती नहीं है।



@ अनीता सैनी 'दीप्ति'

27 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी25/8/22, 7:12 pm

    मेरी भी एक कविता हैं ''रुह निकले पूतले "गूँगी गुडिया " में भी एक भाव हैं मौनता का संवेदनाहिनता का देखकर भी अनदेख आज बदल गया सब कुछ ' एक जिंदे मुर्दे की तरह । एक उदाशीन खामोशी । बहुत कुछ हैं । रचना शिल्पकला और सौन्दर्य से भरपुर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई

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  2. बेनामी25/8/22, 7:13 pm

    भानु भण्डारी

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    उत्तर
    1. आपका ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है।
      मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार।
      सादर

      हटाएं
  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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    उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर मंच पर स्थान देने हेतु।

      हटाएं
  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २६ अगस्त २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    उत्तर
    1. हार्दिक आभार श्वेता दी मंच पर स्थान देने हेतु।

      हटाएं
  5. उत्तर
    1. हार्दिक आभार दी आपकी प्रतिक्रिया से चहरे स्माइल आ गई.. भारत माता की जय 😂

      हटाएं
  6. मरती संवेदनाओं के बीच जीना दुरूह हो जाता है,ऐसी मनोदशा का मार्मिक चित्रण
    कमाल की रचना

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  7. निस्वार्थ भाव से पढ़ा जाता है जब, तब बोलने की ज़रूरत भी नहीं रहती, सारा अस्तित्त्व सुन लेता है

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  8. ओह! दारुण चित्र खींचा है आपने ।
    तब वो जिन्दा थी, कितनी वेदना कितनी मार्मिक।
    अनुपम अभिनव।

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  9. पीड़ा और वेदना का ये भी एक रूप ।
    बेहतरीन लिखा अनीता जी ।

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  10. उम्मीदों का कोना पकड़
    वो बोलती थी
    चहचहाती थी
    किस्से कहानियाँ भी
    सुनाती थी ।
    जब से अलगनी पर
    वर्दी नहीं दिखती
    खुद से ही
    होते हैं संवाद
    मन में हर दम
    रहता विषाद
    जिसके होने से
    चहकती थी
    अब कहाँ है कौन
    इसी लिए अब
    रहती है मौन ।

    गज़ब का सृजन .... मन को झकझोर देने वाला ।

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    1. बहुत बहुत ही सुंदर लिखा आदरणीय संगीता दी जी।
      हृदय से आभार आपका
      सादर

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  11. "समय की भीत पर आई सीलन
    सीलन से बने भित्ति-चित्रों को" ..
    "वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम"..
    अनुपम मार्मिक शब्द-चित्रण ...

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  12. बेहतरीन लिखा अनीता जी ।

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