अस्तित्व का बहना
(नदी और जीवन का आत्मसंवाद)
✍️ अनीता सैनी
वह बहती थी—
शांत, धैर्य से भरी,
जैसे नियति ने पहले ही
उसके प्रवाह में अपना नाम लिख दिया हो।
तटों को लाँघती नदी
मानो समय के कगार पर उकेरा गया प्रश्न हो,
फ़टे बादलों की लकीरों पर टँगा एक उत्तरहीन चिन्ह।
पर जब पीड़ा का ज्वार उठता है,
तो वह सोचती—
क्या अपमानजनक प्रहारों को सहना श्रेष्ठ है,
या मुसीबत की गरजती बिजली के विरुद्ध
विद्रोह की बाढ़ बन जाना?
उसके भीतर मृत्यु भी
एक नींद-सी लगती है—
जहाँ थकान का अंत है,
जहाँ हृदय के दर्द
और जीवन की चोटें
किसी अज्ञात सपने में घुल जाती हैं।
पर उसी नींद का भय
उसे बाँध देता है।
क्योंकि मृत्यु एक अनदेखा देश है,
जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।
यही भय विवेक बन जाता है,
और विवेक उसे कायर बना देता है।
वह जानती है—
संकल्प का रंग
अक्सर विचारों की धुंधली आभा से
फीका पड़ जाता है।
इसीलिए उसके बड़े-बड़े स्वप्न
बहाव में रुक जाते हैं।
फिर भी, नदी रुकती नहीं।
वह समझ चुकी है—
कि उसका बहना ही उसका अस्तित्व है,
चाहे बहाव सँभाले या तोड़े।
उसके कटाव से भी
नई मिट्टी उपजती है,
उसके आँसुओं से भी
नया अंकुर जन्म लेता है।
होना या न होना—
नदी के लिए यह प्रश्न नहीं रहा।
उसके लिए बस इतना है—
बहना ही जीवन है,
और पीड़ा ही वह धारा है
जिससे नया स्वप्न फूटता है।
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