अधूरेपन का आकाश
✍️ अनीता सैनी
वे दोनों
अपनी आख़िरी साँसों पर थे,
टहनियों पर टहलते हुए
याद कर रहे थे—
कितनी बार
हवा ने उन्हें झुलाया,
कितनी बार
पंखों ने दिशा खो दी थी।
वे पूछते—
"तुम बताओ,
तुम कितने आज़ाद थे?"
और जवाबों में
सिर्फ़ टूटे घोंसलों की गूँज थी,
बारिश की बूंदों में
पंख भीगने की थकान थी,
और उन बच्चों की आँखें थीं
जो अब भी
नीचे ज़मीन से ताक रहे थे
कोरे आकाश की ओर।
उन्हींने कहा —
हमने उन्हें
ऊँचाई दिखाने का स्वप्न तो दिया,
पर अपने ही कंधों से बाँधे रखा।
हमारे पंख
उनके पंखों के सहारे न बन सके।
हम इतना ही आज़ाद थे
कि उड़ते-उड़ते
यह स्वीकार कर सकें—
हम अपने बच्चों को उड़ना
सिखा तो सकते थे,
पर अपने कंधों का बोझ
कभी उतार न सके।
और जब वे चुप हुए,
आकाश उनकी थकान को
धीरे-धीरे सोखने लगा।
(जैसे चेतना थके हुए स्वप्नों को
अपने में विलीन कर लेती है।)
पेड़ों की शाख़ें
मानो पुराने घरों-सी टूट रही थीं,
हवा में बिखरे पंख
जैसे फूलों की जगह
जलती हुई धातु टपकाते हों।
बच्चों की आँखों में
अब भी उड़ानों का स्वप्न था—
पर उन स्वप्नों के नीचे
धरती की राख चमक रही थी।
(राख— हर आकांक्षा का अंतिम साक्ष्य।)
हर टूटी टहनी से
एक अधूरी प्रार्थना झर रही थी,
हर मौन पंख से
एक अनकहा गीत जन्म ले रहा था।
और उन दोनों पक्षियों के
आख़िरी स्वर में
सिर्फ़ यह भाव गूँज रहा था—
“हर उड़ान अधूरी है,
पर अधूरापन ही
आकाश का सबसे गहरा रंग है।”
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