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मंगलवार, नवंबर 25

रेत पर बिखरे उत्तर


रेत पर बिखरे  उत्तर


✍️ अनीता सैनी

…..


कभी

धूप में झिलमिलाते उस सुनसान विस्तार से

दृष्टि मत मोड़ना—

उसका वही एक चकत्ता,

जहाँ पृथ्वी

एड़ियों में अपनी पहली धड़कन

धीरे-धीरे रख देती है।


जो नंगे पाँव उस ताप से गुज़रते हैं,

उनके भीतर

दृढ़ता

रेत के किसी कण-सी

चुपचाप जमने लगती है

पृथ्वी

अपने ही कणों की भाषा में

उन्हें चलना सिखाती है।


क्षितिज पर

नीले जल की पहली झिलमिल

और मन कहता है

नाव की खूँटी ढीली छोड़ दो।

सुरक्षित राहें

कभी नहीं पहुँचातीं वहाँ,

जहाँ पहुँचने की इच्छा

जन्म से साथ चली आती है।


कभी-कभी

एक अनाम हवा

रीढ़ में एक नई रेखा खींच देती है

जैसे समुद्र

अचानक भीतर जाग उठा हो।


लहरें

सबको संकेत नहीं देतीं;

वे उन्हीं तक पहुँचती हैं

जो रस्सियाँ ढीली कर देते हैं

और नाव को

अपने भाग्य के हवाले।


भोर से ठीक पहले

मरुस्थल के होंठों पर

ओस की एक महीन थिति

जिसे कोई नहीं सुनता,

पर वह हर दिन

एक पुरानी प्रार्थना दोहराती है।


दूर

खेजड़ी की दूनी परछाइयाँ

धूप के हर कौर को पीकर

अंदर कहीं

छिपा लेती हैं हरियाली।


पक्षी

किरणों के किनारे से

थोड़ी-सी छाया चुनते हैं

और उसकी नमी से

अपने भीतर

नए पंख उगा लेते हैं।


मैं—

इस शांत विस्तार के बीच

क्षणभर रुककर

बस अनुमति माँगता हूँ

कि थोड़ी देर

धरती के पास बैठ सकूँ।


मेरे पास

कोई इच्छा नहीं

सिर्फ एक ऐसी थकान,

जो विश्राम से इनकार करती है,

जब तक उसे

उसकी उपस्थिति की गर्मी

न मिल जाए।


धीमी धूप

कंधों पर उतरती है।

ओस

पलक से फिसलकर

रेत में समा जाती है।


और तभी समझ आता है

मिट्टी ने

अपने मौन में

बहुत पहले

सारे उत्तर लिख रखे थे।


तब मैं

अपने ही प्रश्नों को देख

मुस्कुरा देता हूँ।

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