धूल-धूसरित मटमैली,
कृशकाय असहाय पगडंडी |
कृशकाय असहाय पगडंडी |
न परखती अपनों को,
न ग़ैरों से मुरझाती|
न ग़ैरों से मुरझाती|
दर-ब-दर सहती प्रकृति का प्रकोप,
भीनी-भीनी महक से मन महकाती |
भीनी-भीनी महक से मन महकाती |
क़दमों को सुकूँ,
जताती अपनेपन का एहसास |
जताती अपनेपन का एहसास |
तल्ख़ धूप में,
लुप्त हुई पगडंडी,
रिश्ते राह भटक गये |
दिखा धरा को रूखापन,
पगडंडी दिलों में खिंच रही |
थामे अँगुली चलते थे कभी साथ,
वो राह बदल रही |
निर्ममता की उपजी घास,
रिश्तों की चाल बदल रही |
अपनों को राह दिखाती,
वो डगर बदल रही |
धरा से सिमट अब,
दिलों में खिंच गयी,
कृशकाय पगडंडी,
जिस पर दौड़ते रिश्ते,
रिश्तों की चाल बदल रही |
दिलों में खिंच गयी,
कृशकाय पगडंडी,
जिस पर दौड़ते रिश्ते,
रिश्तों की चाल बदल रही |
- अनीता सैनी