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शनिवार, जनवरी 5

अनुभूति


                                           
अक्सर  वह  बेचैन मन से पुकारती ,
 किन्तु  कुछ कहने की  सामर्थ्यता न जुटा पायी ,
उस की उत्सुकता भरी निगाहें ,
 कपकपाते  होंठ, 
 स्थिर मन, 
डगमगाती  बेचैनी,
  देख मन  तिलमिलाने  जाता ,
उसका उत्सुकता भरी निगाहों से मिलना, 
उसी  बेचैनी को दिल में समेटे  लौट जाना, 
  देख  कौतुहल मन की दीवारों से झाँकने लगा, 
समय  के दोनों  छोर  कुरेदती, 
दो कप चाय,
बेचैन आँखों के सिवा  कुछ न मिला, 
वक़्त का पड़ाव अपनी करवट ले ही रहा था कि, 
जिसे मैं भुला चुकी आज फिर वह मेरी  दहलीज़  पर थी,
 हाथ  में  लकड़ी का सहारा  थामे, 
बारिश  में  कपकपाता  बदन, 
पैरों  की  क्षीण  गति, 
मन में उम्मीद का पुष्प, 
 देख  मन  सिहर उठा, 
उम्र  के ढलते पड़ाव  में उसकी  बेचैनी से, 
फिर मिल  गया मन को कौतुहल का विषय , 
 एक कप चाय जैसे ही उनके के गले से उतरी,
दानवीर कर्ण की भाँति  पूछ ही बैठी, 
अम्मा जी कुछ चाहिए क्या ?
वो एक टक  मुझे ताकती  रही,
 मैं गुनहगार की भाँति  सर झुकाये  बैठी  रही, 
 धीरे-धीरे  शब्द  सफ़र पर निकले....
" बेटी ! तुम्हारे  घर  में  सुख-समृद्धि  का जो पौधा  है
   वैसा  एक मुझे भी दे दो,बरसात के दिन है पनप जायेगा "
बरसात की तेज़  बौछारों के साथ ,
मन में विश्वास के बादल गड़गाड़ने लगे, 
किस पौधे से बाँधूँ  विश्वास की डोरी ?
बरसात की  बूँदों  में बह रहा वात्सल्य मेरी आँखों में छलक गया। 

                             # अनीता सैनी 

4 टिप्‍पणियां:

  1. भावपूर्ण अभिव्यक्ति, बहुत खूब

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  2. किस पौधे से बाँधु विश्वास की डोरी ?
    बरसात की बूंदों में बह रहा वात्सल्य मेरी आँखों में झलक गया ||
    बेहतरीन मनोभावों को संजोया है आपने। मानवीय संवेदनाओं से अधिक कुछ भी नहीँ है। शुभकामनाएं ।

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