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सोमवार, अगस्त 5

तोड़ इस का बतलाओ साधो !



तन  तृष्णा  से तप  रहा, 
वहम  की  फैली  बीमारी, 
सिर  फोड़ता  फिरे  इंसान ,
अंतरमन  में  टीस  उठे  गहरी, 
तोड़ इस का बतलाओ  साधो !
गर्दिश में जनता  सारी | 

गाँव  ग़ुमराह  हुए  हमारे ,  
रौनक  लगे  शहर  की प्यारी, 
खेतों  के  अश्रु  झर  रहे , 
सैर मार्किट में उगति  फ़सलें सारी,
तोड़  इस  का  बतलाओ  साधो !
गर्दिश  में  जनता  सारी |

किसान की कमर पर मार हथौड़ा ,
प्लास्टिक की बनी  सब्जी-तरकारी,
शौहरत की महक में मरी मानवता ,
दिखावे  में  डूबी  जनता  बेचारी, 
तोड़ इसका बतलाओ  साधो !
गर्दिश में जनता  सारी |

 झूम  रही  महँगाई   मौज  में , 
प्रेम के  कंधों पर मानव का जीवन भारी, 
ग्रामवासिनी  माता अब हारी, 
घर-घर बर्तन माँझ समेटे लाचारी, 
तोड़ इस का बतलाओं साधो !
गर्दिश में जनता  सारी |

-अनीता सैनी

34 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब अनीजा जी, तुकबंदी में खूबसूरती से सजी कव‍िता

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-08-2019) को "मेरा वजूद ही मेरी पहचान है" (चर्चा अंक- 3419) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. सहृदय आभार सर चर्चा मंच पर मुझे स्थान देने के लिए
      सादर

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 5 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. शुक्रिया दी मुझे स्थान देने के लिये
      सादर

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 6 अगस्त 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार सर पाँच लिंकों पर मुझे स्थान देने के लिये
      सादर

      हटाएं
  5. गाँव ग़ुमराह हुए हमारे ,
    रौनक लगे शहर की प्यारी,
    खेतों के अश्रु झर रहे ,
    सैर मार्किट में उगति फ़सलें सारी,////////
    बहुत खूब अनीता जी


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    उत्तर
    1. आभार आप का मेरी मेरी प्रस्तुति पढ़ने और वक़्त निकालने के लिए
      सादर स्नेह

      हटाएं
  6. गाँव ग़ुमराह हुए हमारे ,
    रौनक लगे शहर की प्यारी,
    खेतों के अश्रु झर रहे ,
    सैर मार्किट में उगति फ़सलें सारी,
    तोड़ इस का बतलाओ साधो !
    गर्दिश में जनता सारी |
    बहुत खूब अनीता , बहुत ही सधी रचना , तुम्हारे नए तेवर में जिनमें सम सामयिक विसंगतियों के प्रति चिंता के भाव झलक रहे हैं | हार्दिक शुभकामनायें इस सार्थक सृजन के लिए |

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    उत्तर
    1. तहे दिल से आभार प्रिय रेणु दी जी मेरे नये तेवर की तारीफ़ के लिए |अपनी अनमोल समीक्षा से मेरी प्रस्तुति को यूँ ही नवाजते रहे यही आप से गुज़ारिश है |आप का स्नेह और सानिध्य बनाये रखे |
      सादर स्नेह

      हटाएं
  7. उत्तर
    1. तहे दिल से आभार आदरणीया दी जी
      प्रणाम
      सादर

      हटाएं
  8. एक चिंता जो चिता के समान है. वहम के चक्कर में ये सब व्यर्थ की भागदौड हो रही है. शहरीकरण, महंगाई, प्लास्टिक की सब्जी वाला किस्सा तो वर्तमान की सचाई है. लाजवाब लेखन.

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  9. सुन्दर भाव,बेहतरीन रचना सखी

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  10. समय की धारा में अच्छाई और सच्चाई बह गए हैं अब सजावट के कागज के फूल हैं बाकि
    जिनपर भ्रमर नहीं आते बस गर्द जमती रहती है ।...
    समय की बदलती विसंगतियों पर प्रहार करती सार्थक रचना ‌।
    मन का क्षोभ उभर कर आया है ।

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    1. तहे दिल से आभार प्रिय कुसुम दी जी |सुन्दर समीक्षा और उत्साहवर्धन हेतु
      सादर

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  11. वाह!!प्रिय सखी ,अलग अंदाज ,लाजवाब!!

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  12. बहुत सुन्दर सार्थक और सटीक रचना....
    झूम रही महँगाई मौज में ,
    प्रेम के कंधों पर मानव का जीवन भारी,
    ग्रामवासिनी माता अब हारी,
    घर-घर बर्तन माँझ समेटे लाचारी,
    सचमुच चिन्ता का विषय है सभी खेत खलियान छोड़कर शहरों में पलायन कर रहे हैं....अन्न फल सब्जी सब मिलावटी ....बहुत ही लाजवाब विचारणीय विषय पर सार्थक लेखन के लिए बहुत बहुत बधाई अनीता जी !

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  13. किसानी और किसान के स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करती रचना....जिसे हम चकाचौंध में नजरअंदाज कर देते हैं।
    सार्थक रचना।

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  14. झूम रही महँगाई मौज में ,
    प्रेम के कंधों पर मानव का जीवन भारी,
    ग्रामवासिनी माता अब हारी,
    घर-घर बर्तन माँझ समेटे लाचारी,
    तोड़ इस का बतलाओं साधो !
    गर्दिश में जनता सारी |
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सखी

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  15. अद्भुत एवम शानदार रचना प्रिय अनिता

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  16. वाह शानदार रचना अनीता जी

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