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शुक्रवार, जनवरी 17

बर्फ़-सी पिघलती है पिपासा



वाक़िया एक रोज़ का... 
सँकरी गलियों से गुज़रता साया,
छद्म मक़सद के साथ था, 
कुछ देखकर अनायास ठिठक गया। 

राम के नाम पर विचरते  राहू-केतू,

आज नक़ाब चेहरे का उतर गया,
है अमर ज्योति गणतंत्र की वहाँ, 
दबे पाँव दहशत का अँधेरा उस राह पर छा गया। 

स्वतंत्रता की उजली धूप में मानुष, 
अँगूठा अपना दाँव पर लगा  रहा,  
पसार दिया अपना हाथ मैंने भी,
  उन्मादी मस्तिष्क नजात दर्द से पा गया। 

 कतार का हिस्सा बन झाँकती जहां में,

 उसी कतार से नाम अपना मिटा रही, 
बदलेगी दुनिया आत्ममंथन के बाद,  
नये चेहरों को कतार का मुखिया बना रही।  

बर्फ़-सी पिघलती है पिपासा मेरे मन में,
 कलकल बहती झरने-सी साँसों में, 
भरी अँजुरी से झरती देख भविष्य को, 
 पैरों से लिपट सार्थकता अँगूठे की बता रही। 

ज़िंदा हूँ मैं ज़िन्दगी मुझसे पूछती, 

ख़ामोशी में चेतना बन वह साया विहरता, 
पसारा था हाथ अवसाद में बनी आत्मवंचना
रोम-रोम उस मोड़ पर सिहरता रहा।  

©अनीता सैनी 

22 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" कल शनिवार 18 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी मेरी रचना का मान बढ़ाने हेतु.
      सादर

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  2. नवीनता और मौलिकता सृजन की आत्मा है. अनूठे बिम्बों और प्रतीकों से सजी अभिव्यक्ति में विश्व-बिरादरी में चल रहे आत्ममंथन को छूने का प्रयास किया है.अपने अस्तित्त्व को स्वीकरना संघर्षशील होने का प्रभाव है.
    उत्कृष्ट रचना.

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    1. सादर नमन आदरणीय सर सुन्दर सरगर्भित समीक्षा हेतु. अपना आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

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  3. वाह बेहतरीन सृजन सखी।

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना सखी

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  5. ज़िंदा हूँ मैं ज़िन्दगी मुझसे पूछती,
    ख़ामोशी में चेतना बन वह साया विहरता
    बहुत खूब.... ,लाजबाब सृजन अनीता जी

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    1. सादर आभार आदरणीया कामिनी दीदी सुन्दर समीक्षा हेतु.
      सादर

      हटाएं
  6. बर्फ़-सी पिघलती है पिपासा मेरे मन में,
    कलकल बहती झरने-सी साँसों में,
    भरी अँजुरी से झरती देख भविष्य को,
    पैरों से लिपट सार्थकता अँगूठे की बता रही।
    वाह!!!!
    स्वतन्त्रता की उजली धूप में अंगूठा दाव पर लगाया
    अंगूठे बिना अंंजुरी से भविष्य को झरता देख अंगूठे की सार्थकता का पता चलना.....अद्भुत चिन्तनपरक, सारगर्भित सृजन...
    बहुत ही लाजवाब

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    1. सादर आभार आदरणीया सुधा दीदी जी रचना का मर्म स्पष्ट करती सुन्दर समीक्षा हेतु. अपना स्नेह बनाये रखे.
      सादर

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  7. वा। हहहहहहहह
    बेहतरीन सृजन

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    1. सादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  8. आपकी गूढ़ रहस्य सी कृतियां कभी कभी स्तब्ध कर देती है,कैसे ऐसे योगियों से व्याख्यान रचते हो ! धन्य है आपकी अद्भुत सृजनशीलता को।

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    1. सादर नमन आदरणीया दीदी जी अपना अपार स्नेह यों ही बरसाते रहे. तहे दिल से आभार
      सादर

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  9. बहुत सुन्दर अनीता !
    कविता बहुत अच्छी है लेकिन बहुत खतरनाक भी है.
    रामभक्तों के कोप से बच कर रहना.
    और हाँ ! एक मुफ़्त की सलाह -
    'अगर टहलने भी जाओ तो हेल्मेट पहनकर जाना !'

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    उत्तर
    1. सादर नमन आदरणीय सर अपने अनमोल शब्दों से रचना को नवाज़ने हेतु. अपना आशीर्वाद यों ही बनाये रखे.
      सादर

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  10. ज़िंदा हूँ मैं ज़िन्दगी मुझसे पूछती,
    ख़ामोशी में चेतना बन वह साया विहरता
    बहुत खूब...

    वक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग :)
    शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है

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