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शनिवार, फ़रवरी 1

समझ ग़ुलाम क्यों है?



सागर की लोल लहर,सन्नाटे की गूँज,  
छाती की छोटी-सी सिहरन बन दौड़ी,  
रचा समय ने इतिहास,द्वेष की हवा क्यों है? 
जनवादी-युग में प्रकृति पर प्रहार, 
तय विनाश का सफ़र क्यों है?  
सीपी-सी मासूम धड़कनों का पतन,  
मानवता बुर्क़े में चेहरा छिपाये क्यों है? 

प्रत्यवलोकन कर मानव यथार्थ का,  
प्रत्यभिमुख अस्तित्त्व से अपने क्यों है?  
खींप,आक कह बाँधी बाड़ एकता की,  
हनन जीवन-निधि का यह कैसा तांडव रचा है,  
बड़प्पन के मुखौटे पर लेवल समझदारी का,  
कैसा अवास्तविक आवरण हवा में गढ़ा, 
स्वार्थ-निस्वार्थ समझ की चुप्पी का 
लेता हिलोरें क्यों है 

 बढ़ा धरा पर घास-फूस का हाहाकार,  
झिझक घटी,बढ़ीं विकृतियाँ बदहवास वासना कीं,  
हरी पत्तियाँ रौंद,सूखे डंठल से हुँकार,  
कँटीली झाड़ियों का बसाया कैसा परिवेश है?  
मंदिर-मस्जिद के गुंबद के पीछे डूबते एक,
 चाँद-सूरज का करता बँटवारा इंसान, 
 अनेकता में एकता का धुँधला पड़ता स्नेह,
शब्दों का मुहताज बन समझ ग़ुलाम क्यों है? 

©अनीता सैनी  

16 टिप्‍पणियां:

  1. मानवता बुर्क़े में बंद चेहरा छिपाये क्यों है?
    सार्थक सृजन अनीता बहन..

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    1. सादर आभार आदरणीय शशि भाई उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.

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  2. वर्तमान परिवेश में छायी विकृतियों को विमर्श के सार्थक परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त किया गया है. कविता की व्यंग्यात्मक शैली पाठक को चिंतन की गंभीरता का एहसास कराती है. आजकल शिथिल होती संवेदना को झकझोरना ज़रूरी है. सृजन का मूल उद्देश्य वक़्त की विसंगतियों को सामने लाना और न्याय की बात करना है.

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    1. सादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित समीक्षा हेतु.रचना के अनुरुप हमेशा आपका का सार्थक चिन्तन मनोबल बढ़ाता है स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

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  3. वाह बेहतरीन सृजन सखी! झिझक घटी बढ़ी विकृतियाँ।बिलकुल सच्चाी बात सखी। समाज को अपने चपेट में लेती बिसंगतियों का दुष्प्रभाव व्यापार रूप से मानवता को लील रहा है।

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    1. सादर आभार प्रिय सखी सुन्दर एवं उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु. स्नेह बनाये रखे.
      सादर

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-02-2020) को 'सूरज कितना घबराया है' (चर्चा अंक - 3600) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव



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    1. सहृदय आभार आदरणीय चर्चामंच पर स्थान देने हेतु.
      सादर

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  5. जनवादी-युग में प्रकृति पर प्रहार,
    तय विनाश का सफ़र क्यों है?

    बहुत ही विचारणीय चिन्तनपरक .....

    झिझक घटी,बढ़ीं विकृतियाँ बदहवास वासना कीं,
    समसामयिक परिवेश का कटु सत्य एकदम सटीक
    वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाब सृजन

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    1. सस्नेह आभार आदरणीया दीदी जी सुन्दर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर

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  6. बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति 👌

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    1. सस्नेह आभार आदरणीया दीदी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  7. देश और समाज में व्याप्त भ्रांतियों से देश वासियों में इतनी विसंगतियों आई है कि चारों और ज्वालामुखी फूट रहे हैं, अपनी रचना के माध्यम से अपने सार्थक ढंग से प्रस्तुत किया है चिंतन में चिंता साफ झलक रही है।
    सार्थक सामायिक सृजन।

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी जी सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर स्नेह

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  8. अनेकता में एकता का धुँधला पड़ता स्नेह,
    शब्दों का मुहताज बन समझ ग़ुलाम क्यों है?

    बहुत खूब अनीता जी ,चिंतनपरक सृजन ,सादर स्नेह

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
      सादर

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