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बुधवार, अप्रैल 1

वे आँखें


                                              

दौड़तीं हैं वे परछाइयाँ,  
भूख से व्याकुल,  
 गाँव से शहर की ओर, 
और उसी भूख को,  
छिपाती हैं वे ज़िंदगीभर,  
अपनों के लिये ।

 बुनतीं हैं वे अहर्निश स्वप्न, 
अधखुली आँखों से,  
संग सँजोतीं हैं एहसास,  
कि ज़िंदा हैं वे परछाइयाँ,   
फिर अस्तित्त्व में क्यों नहीं?

समय के बहाव में वही आँखें, 
प्रश्नकर रहीं थीं स्वयं से, 
बिखरकर उठ खड़े होने के इरादे से,  
कि वे अपने ही घर में दौड़ क्यों रहीं हैं? 

वे आँखें प्रश्न कर रही हैं,  
अपने ही निर्णय से,  
पैरों में पड़े ज़िंदगी के छालों से, 
मन में उठती बेचैनी से, 
उस बेचैनी में सिमटी पीड़ा से।

वे आँखें, 
अश्रु नहीं बहा रही थीं, 
बस ख़ामोश थीं, 
कुछ विचलित-सी थीं और,  
देख रहीं थीं,  
एक ओर, 
ख़ाली करवाते मकान, 
दूसरी ओर,  
देख रहीं थीं कुछ देर बाद, 
 बनते हुए उन्हीं, 
आदमियों को इंसान !

© अनीता सैनी 

23 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 01 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सादर आभार आदरणीय सर संध्या दैनिक में मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
      सादर

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (02-04-2020) को   "पूरी दुनिया में कोरोना"   (चर्चा अंक - 3659)    पर भी होगी। 
     -- 
    मित्रों!
    कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं भी नहीं हो रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत दस वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    1. सादर आभार आदरणीय सर चर्चा मंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
      सादर

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  3. परिस्थिति में इंसान कैसे बादल जाता है ।।। कभी शैतान तो कभी इंसान .।. क्या सच है इंसान का ... कोई का ही भी शायद नहीं बता पाए ।।।

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    1. सादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  4. संकट काल में समाज का व्यवहार आत्मकेन्द्रित हो जाता है तब मानवता जार-जार होकर रोती है। दुनियाभर में पाँव पसार चुकी कोरोना वायरस महामारी ने जहाँ एक जीवन ख़तरे डाल दिया है वहीं समाज में संवेदनहीनता के अनेक उदाहरण ख़बरों के ज़रिये सामने आ रहे हैं।

    प्रस्तुत रचना बेबस लोगों की पीड़ा अभिव्यक्त करती हुई समाज के दोगलेपन पर तीखा प्रहार करती है।

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    1. जार-जार = ज़ार-ज़ार

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    2. सादर आभार आदरणीय सर सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर

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  5. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  6. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

      हटाएं
  7. वे आँखें,
    अश्रु नहीं बहा रही थीं,
    बस ख़ामोश थीं,
    कुछ विचलित-सी थीं और,
    देख रहीं थीं,
    एक ओर,
    मार्मिक सृजन अनीता जी

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
      सादर

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  8. कभी भूख मिटाने अपनी और अपनों की
    आये थे शहर पर
    आज कुदरत ने ढाया है कैसा कहर
    अब लगता है भूखे ही मरे होते
    अपने घर गाँवों में
    यूँ मीलों पैदल न चलते
    छालों भरे पाँवों से...
    आज अपने घर गाँव वाले ही
    हमें इनकार करते हैं
    जहाँ वो जिस हाल में हो वहीं वैसे ही रहो
    अपना प्रतिकार करते हैं
    बहुत ही मर्मस्पर्शी समसामयिक सृजन।

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    1. वाह !बेहतरीन दी आपके लेखन का जवाब नहीं. स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर आभार सुंदर समीक्षा हेतु.

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  9. वाह अत्यन्त मार्मिक रचना

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    1. सादर आभार आदरणीय दीदी स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
      प्रणाम

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