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मंगलवार, जून 23

दोहन दिमाग़ का



                                       

स्वयं की सार्थकता दर्शाते 
पंखविहीन उड़ना चाहते ऐसे चितेरे हैं।   
दुविधा में फिरते मारे-मारे   
देख रुखी-सूखी डालें समय की 
सभ्यता के जंगल में विचरते
  बदलते लिबास ऐसे बहुरुपिये बहुतेरे हैं। 

जीवन-वृक्ष की काटते टहनियाँ 
 जतन से बीनते स्वप्नरुपी डंठल। 
प्रत्येक डंठल पर लाचारी जताते  
फिर भी आज्ञा कह एकत्रित करते। 
उम्र की टोकरी अकारण  ढोते  
प्रगति की पवन का पीटते कोरा ढिंढोरा हैं।  

 संकुचित हो वे आड़े-तिरछे चलते  
निगाह चुराए कुछ भयभीत-से हैं। 
फुसफुसाहट अक्षर नवसाक्षर की-सी 
उलझन लिए दबे स्वर में कलरव-से गा उठे। 
मायावी लताओं से गूँथी व्यवहार की टहनियाँ 
प्रकृति का नहीं दोहन मानव दिमाग़ का होना है। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

32 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय यशोदा दीदी मंच पर स्थान देने हेतु .
      सादर

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  2. व्यंग भी ऐसा कि समझने के लिए संदर्भों का ज्ञान होना चाहिए।

    समाज की पाखंडी सोच पर करारा प्रहार करती रचना दोहरे मानदंडों को कठघरे में रखती हुई तीखे सवाल करती है।

    कुछ विरोधाभासी विचार भी व्यंग-कविता को और अधिक गूढ़ बना देते हैं।

    कबीर साहब कहते हैं-

    "बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय,

    जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय।"

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    1. सादर आभार आदरणीय सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु .
      सादर

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  3. जीवन-वृक्ष की काटते टहनियाँ
    जतन से बीनते स्वप्नरुपी डंठल।
    प्रत्येक डंठल पर लाचारी जताते
    फिर भी आज्ञा कह एकत्रित करते।
    उम्र की टोकरी अकारण ढोते
    प्रगति की पवन का पीटते कोरा ढिंढोरा हैं।
    बेहतरीन रचना ,आपकी किताब को अमेज़ॉन नही दिखा रहा ,कोई लिंक हो तो दे ,पहले भी कहा था पर आपने जवाब नहीं दिया

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    1. आभारी हूँ आदरणीया दीदी इस अपार स्नेह की ...ईमेल किया है आपको या आप ब्लॉग पर लगे बुक के लोगो पर क्लिक करे .वहाँ सभी वेबसाइड के लिंक उपलब्ध है.स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे .

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    2. वेबसाइड को वेबसाइट पढ़े .

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-06-2020) को "चर्चा मंच आपकी सृजनशीलता"  (चर्चा अंक-3742)    पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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    1. सादर आभार आदरणीय सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु .
      सादर

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  5. वाह क्या सुंदर लिखावट है सुंदर मैं अभी इस ब्लॉग को Bookmark कर रहा हूँ ,ताकि आगे भी आपकी कविता पढता रहूँ ,धन्यवाद आपका !!
    Appsguruji (आप सभी के लिए बेहतरीन आर्टिकल संग्रह) Navin Bhardwaj

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  6. मायावी लताओं से गूँथी व्यवहार की टहनियाँ
    प्रकृति का नहीं दोहन मानव दिमाग़ का होना है।
    प्रिय अनिता, आपके लेखन की अद्भुत कृति है ये रचना। गहन चिंतन के बिना इसके अर्थ में उतरा नहीं जा सकता। जितनी बार पढ़ो, नए अर्थ निकलते हैं।
    सभ्यता के जंगल में विचरते
    बदलते लिबास ऐसे बहुरुपिये बहुतेरे हैं।
    ये बहुरुपिए मनुष्य के दिमाग का दोहन कर अपना मतलब साध लेते हैं। प्रकृति के दोहन से भी खतरनाक है मानवी दिमाग को दोहन जो कई बार किसी के जीवन पर भी पूर्णविराम लगा देता है।

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    1. सादर आभार आदरणीया मीना दीदी. आपकी हृदयस्पर्शी बातें और शुभकामनाएँ मेरी ऊर्जा हैं.आपके आशीर्वाद और मार्गदर्शन ने सदैव मेरे लेखन को नई दिशा दी है. आपका साथ बना रहे.
      स्नेह बनाए रखिएगा.

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  7. प्रतीकात्मक शैली में आपने सटीक प्रहार किए हैं अनिता!
    सुंदर सार्थक।

    सच में ये दुनिया विचित्र है और कुछ लोग सदा विरोधाभास बने रहते हैं स्वयं के विचारों से, सच कहूं तो वे आत्म वंचना में फंसे रहते हैं ।
    उन्हें हर चीज में ऐतराज होता है,बस अपने को को विद्यासागर समझते हैं ये "चितेरे"

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    1. सादर आभार आदरणीया कुसुम दीदी. आपके आशीर्वाद और मार्गदर्शन ने सदैव मेरे लेखन को नई दिशा दी है. आपका स्नेह साथ यों ही बना रहे.
      सादर

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  8. बहुत खूबसूरत रचना

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    1. सादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .
      सादर

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  9. जीवन-वृक्ष की काटते टहनियाँ
    जतन से बीनते स्वप्नरुपी डंठल।
    प्रत्येक डंठल पर लाचारी जताते
    फिर भी आज्ञा कह एकत्रित करते।
    उम्र की टोकरी अकारण ढोते
    प्रगति की पवन का पीटते कोरा ढिंढोरा हैं।
    उम्र की टोकरी सचमुच अकारण ही ढ़ोते हैं ऐसे लोग....क्योंकि उम्रदराज होने पर भी अनुभवहीन और स्वार्थी ही रहते हैं ये....।जीवनवृक्ष की टहनियाँ काटने वाले ऐसे लोगों के जड़कटा कह सकते हैं....
    सभ्यता के जंगल में विचरते
    बदलते लिबास ऐसे बहुरुपिये बहुतेरे हैं।
    बिल्कुल सटीक ....
    स्वयं को सभ्य कहने वाले ऐसे जंगली लोग विचारों से बिल्कुल थोथे और खोखले होते हैं।ऐसे बहुरुपियों को पहचाना भी आसान नहीं... ऐसे मायावियों से खबरदार करतीबहुत ही विचारणीय एवं लाजवाब रचना हेतु बहुत बहुत बधाई।

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    1. सादर आभार आदरणीय सुधा दीदी आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए आशीर्वाद है.साथ बनाए रखे .
      सादर

      हटाएं
  10. जीवन-वृक्ष की काटते टहनियाँ
    जतन से बीनते स्वप्नरुपी डंठल।
    प्रत्येक डंठल पर लाचारी जताते
    फिर भी आज्ञा कह एकत्रित करते।
    उम्र की टोकरी अकारण ढोते
    प्रगति की पवन का पीटते कोरा ढिंढोरा हैं। वाह बेहतरीन रचना सखी।

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  11. प्रतीकात्मक शैली में प्रहार करती सटीक रचना,अनिता दी।

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    1. सादर आभार आदरणीय ज्योति दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .
      सादर

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  12. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सर आपकी प्रतिक्रिया सदैव मेरा मार्गदर्शन करती है .
      सादर

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  13. यथार्थ से परिपूर्ण रचना

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    1. सादर आभार आदरणीय दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .सादर

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  14. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .
      सादर

      हटाएं
  15. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .
      सादर

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  16. https://keedabankingnews.com/nira-app-se-personal-loan-kaise-le-in-hindi/

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