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गुरुवार, सितंबर 10

विचित्र खेल है खेलते जाना है !


 समय को समझ के फेर में उलझाते हुए 
हृदय की अगन को सुलगाते  रहना है। 
शालीनता के मुखौटे की आड़ में 
ईर्ष्या  के छाले शब्दों पर जड़ते जाना है। 

विचित्र खेल है परंतु खेलते  जाना 
खेलने वाला हर व्यक्ति को विजेता कहलाना है। 
आम आदमी  को मौलिकता का चश्मा लगाना  
मिथ्या की बेल पर यथार्थ को चढ़ाते जाना है।  

घर न घरवालों की परवाह 
विवेक की कोख में अहम को पालना है।  
महत्वाकांक्षा के धरातल पर 
पौध द्वेष की सींचते दर्शकों को लुभाते जाना है। 

उलझनों की खाई खोदते हुए 
गद्दी पर आधिपत्य बनाए रखना है। 
सफलता के वृक्ष लगाने के बहाने से 
वर्तमान को दफ़नाना भविष्य को छलते जाना है। 
बस यही खेल आज खेलते जाना है !

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

20 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 11-09-2020) को "मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ " (चर्चा अंक-3821) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"


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    1. सादर आभार आदरणीय मीना दी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  2. बहुत खूब ... खेल को न सिर्फ खेलना बल्कि अपने आप को विजेता भी बनाते जाना और मानते रहना ... यही तो आज का मुखौटा है ... सभी खेलते हैं इस विचित्र खेल को ...

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सर प्रतिक्रिया से सृजन को प्रवाह मिला। आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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  3. घर न घरवालों की परवाह
    विवेक की कोख में अहम को पालना है।
    महत्वाकांक्षा के धरातल पर
    पौध द्वेष की सींचते दर्शकों को लुभाते जाना है।
    बस हम ही विजेता हैं इसी अहंकार में खेल को विचित्र बनाए हुए हैं ...
    बहुत सुन्दर सृजन।

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    1. सादर आभार आदरणीय सुधा दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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  4. बहुत सुंदर रचना सखी

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  5. सुंदर प्रस्तुति

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  6. खेल-खेल में खेल हो जाता है ! बहुत सुंदर

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    1. सादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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  7. यही तो जीवन है, प्रस्तुतिकरण हेतु बधाई

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