शैवाल से शिला तक
✍️ अनीता सैनी
—
वह समय —
जो कभी नहीं लौटता,
जिसका अब जीवन में कोई औचित्य नहीं,
वही सबसे अधिक बुलावा भेजता है;
कोस मीनार-सा खड़ा,
अनुगूंज बनकर कहता है —
मेरी नाड़ी में अब भी
एक अनसुनी प्रतीक्षा धड़कती है।
मैं अब भी यहीं हूँ —
जहाँ शब्द थम जाते हैं,
और दृष्टि
प्रतीक्षा के जल में
अपना प्रतिबिंब टटोलती है।
वर्षों से थामी इस डोर का सिरा,
विश्वास की नमी में भीगा है,
पर टूटा नहीं —
बस समय की उँगलियों में
उलझा पड़ा है।
और कहता है —
प्रतीक्षा सूखती नहीं अंत में,
ढूँढती है कि
क्या कोई अब भी वहाँ है,
जहाँ से वह चला था।
जहाँ —
समय की साँसों पर
स्मृतियों के शैवाल उग आए हैं;
वे शैवाल,
हरे हैं — पर थके हुए,
जो अब धीरे-धीरे
एक कोरी
शिला बनते जा रहे हैं।
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