चुप्पी ही जीवन का शास्त्र है।
✍️ अनीता सैनी
स्त्री—
आँचल में सूरज की तपिश छिपा लेती है,
ओस की बूँदों से चाँद को पोंछ देती है।
पैर-पैर पर शांति के पदचाप रचती है,
और अगली सुबह
दुनिया उसे परिवर्तन की गूँज कहती है।
वह अपने सुख
दूसरों की रोटी में सेंककर बाँट देती है,
अपने स्वप्न
घर की दहलीज़ पर दीपक बनाकर जला देती है,
और लौटकर पाती है केवल
व्यंग्य, उपेक्षा और अपमान का अंधकार।
कितना गहरा विरोधाभास है यह—
जहाँ त्याग को पूजा की वेदी कहा जाता है,
वहीं त्यागिनी को
संशय और तिरस्कार की जंजीरों में बाँधा जाता है।
वह स्त्री—
अपमान को भी
पवित्रता की वेदी पर चढ़ा देती है,
मानो आत्मा का स्वर्ण
कभी कलंकित हुआ हो।
वह जानती है—
काँटे चुभते हैं तो भी
फूल की सुगंध निर्दोष रहती है।
विचित्र है यह संसार—
त्याग को भक्ति कहकर गाता है,
पर वही स्त्री
जीते-जी अवमानना की चिता में झोंकी जाती है।
फिर भी—
उसकी आत्मा जलती नहीं,
बल्कि और उजली होती जाती है।
जैसे अंधकार बढ़े
तो तारे और प्रखर चमकने लगते हैं।
वह स्त्री—
एक दिन
अपनी चुप्पी में
जीवन का सबसे गहन शास्त्र लिखती है।
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