सूखा कुआँ
✍️ अनीता सैनी
…..
जीवन के सारे जतन
धरे के धरे रह जाते हैं,
जब कोई उस कुएँ की जगत पर बैठता है
जहाँ अब पानी नहीं खिंचता—
और वहीं से
स्मृतियों का घड़ा
फिर-फिर भरकर लौट आता है।
वह घड़ा भारी लगता है,
मानो अदृश्य पीड़ा का बोझ
कंधों पर रख दिया गया हो।
फिर भी—
नाउम्मीदी की अंधेरी सुरंग में
यदि धुंधली-सी कोई परछाईं उभर आए,
तो वही परछाईं
दूसरे छोर तक पहुँचने का
सबसे सुगम मार्ग बन जाती है।
मन जानता है—
वह रास्ता किसी न किसी दीवार में
धँस सकता है,
फिर भी वह
दरारों से रिसती रोशनी की
एक किरण खोज लेता है—
मानो किसी अनदेखे हाथ की छुअन,
जो अंधकार के भीतर भी
प्रकाश का आश्वासन देती रहती है।
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