चेतना का मानचित्र
✍️ अनीता सैनी
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पृथ्वी लोक पर कोई मानचित्र नहीं है।
जहाँ पहुँचकर
चेतना को सूखने से बचाया जा सके—
वे पगडंडियाँ फिर लौट आती हैं,
जहाँ वह बार-बार ठिठकी थी।
रातें यहाँ धीमी-धीमी साँसें लेती हैं,
और कोई न कोई चेतना
हर सुबह उसके भीतर मरती है।
चेतना का यों मरना
पौधों की नमी सोख लेता है।
बेहोशी की चाबी को हल्के से घुमाया जाता है—
नियंत्रित झटके से
शरीर लौट आता है
अपने पुराने रंगों में,
और फिर वहीं रचना शुरू होती है:
एक नई कहानी, वही पुरानी मिथ्या।
मन और मांस का यह खेल पुराना है—
पर हर बार नया प्रतीत होता है।
कमज़ोर चेतनाएँ चुपचाप मिट जाती हैं,
बिना शोर किए।
कुछ कठोर चेतनाएँ काँटों-सी चुभती हैं—
और मरती नहीं;
वे जागती हैं,
टूटे हुए दर्पणों को जोड़कर
अपना चेहरा बनाती हैं,
और उसी नए चेहरे के साथ
दुनिया से पूछती हैं—
"मृत्यु लोक में मैं ज़िंदा हूँ?"
कभी-कभी
एक आवाज़ आँधियों में खो जाती है,
कभी-कभी
एक ख़ामोश हँसी
रेत पर क्षणिक चमक-सी उभरती है;
और साँसें चलने लगती हैं—
किसी मंज़िल की उम्मीद किए बिना—
क्योंकि हर कदम पर
कोई छोटा-सा अंत उसका इंतज़ार करता है।
प्रेम भी झरने लगा है पत्तों की तरह,
ताकि फिर नए नाम से उग सके।
और वचन भी धूल में मिलकर
फिर से शब्द बन जाते हैं।
पर जो चेतनाएँ सघन होती हैं—
जो दीठ और ज्वलंत हैं—
वे उभर आती हैं,
बुझती नहीं,
और जगमगाती हैं अपना मार्ग।
दुनिया इसे जीवन कहती है—
वह जानती है कि यहाँ
हर सुबह एक मौत-सी होती है,
और हर रात एक जन्म की तैयारी;
फिर भी वह मुस्कुराती है,
क्योंकि यह खेल
हर बार कुछ नए किरदारों से मिलता है।
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