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मंगलवार, दिसंबर 9

प्रतीक्षा एक तीर्थ


प्रतीक्षा एक तीर्थ 

✍️ अनीता सैनी

……

कोई भी साया
बस यूँ ही देवद्वार तक नहीं जाता
भटकन उसे भी
खारी लगने लगती है।
मन की मरुस्थली देह पर
जब बहुत दिनों तक
कोई रोशनी नहीं उतरती,
तभी हाथ-पैर
थकान के आगे झुकते-झुकते
प्रार्थना में फैल जाते हैं।

कोई 
सहज ही मरुस्थल नहीं बनता
आँखों के पीछे
एक अदृश्य आँधी
महीनों तक घूमती रहती है।
अन्दर कहीं
घड़ों-घड़ों रेत
चुपचाप गिरती रहती है,
और समय
अपनी ही परछाइयों को पीकर
धीरे-धीरे
सूखी नदी बन जाता है।

होनी और अनहोनी
कभी-कभी
एक ही चेहरा पहन कर सामने आती हैं
अजनबी-सा,
अपने ही अजीब खेलों में उलझा हुआ।
और इसी बीच
आँखें
दिन-रात की नींद पीकर
नमक बनकर
चुपचाप जम जाती हैं।

बड़े दिनों तक
जब कोई काग भी
मुंडेर पर नहीं आता
तो लगता है
घर के आँगन से
किसी की धड़कन
कहीं दूर कहीं खिसक गई हो।
हवा चलती है
बहुत सुरीली, बहुत अपनाई-सी,
पर उसी समय
किसी और के हाथ आया संदेश
मन को
कटार-सा चुभ जाता है।

और तभी समझ आता है
प्रतीक्षा भी एक तीर्थ है,
जहाँ हर यात्री
अपनी धूल
अपने ही कंधों पर ढोता है।


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