ओसरी में खड़ा गवाह
अनीता सैनी
…….
उसे दिखाई देता है
मोह का एक विशाल वृक्ष,
जिसकी जड़ों में
सदियों की आदतें
पानी की तरह
लगातार रिसती रहती हैं।
वृक्ष पर टँगा
एक टूटा, जर्जर पिंजरा,
जैसे समय ने
अपनी थकान
वहीं टाँग रखी हो।
पिंजरे के सहारे
पिंजरे से बाहर धकेली गई
एक चिड़िया,
जो हर बार
गहन भरोसे के साथ
बार-बार
वहीं आ बैठती है
कि आज भी आकाश
उससे
कुछ नहीं छीनेगा।
पिंजरे से चिड़िया का
गहरा लगाव देख
वह हँसता है।
हँसी
जो आँखों से पहले
होंठों पर आ जाती है,
जैसे
कुछ देख लेने भर से
खुद को
बचा लेना चाहता हो।
वह हँसता है
कभी चिड़िया पर,
कभी उस जर्जर, टूटे पिंजरे पर,
कभी चिड़िया की उड़ान पर
जो उड़ान कम,
बार-बार लौट आने की
एक सधी हुई कला में
बँधी हुई है।
वह विचारता है
वृक्ष की गहरी जड़ों को,
जो हर बंधन को
स्वाभाविक ठहराती हैं;
और चिड़िया के भोलेपन को,
जिसे वह
दया का नाम देता है।
वह गर्व करता है कि
देखते-ही-देखते
उसकी दया का पात्र
और बड़ा हो जाता है।
उसे दिखता है
चिड़िया का रूप,
उसका रंग,
उसके पंखों का फैलना;
पर उसे नहीं दिखता
वह क्षण,
जब वह
आकाश को
सिर्फ़ दिशा मानकर
छोड़ देती है।
उसे नहीं दिखते
उस वृक्ष पर टँगे
हज़ारों पिंजरे
जो अब लोहे के नहीं,
आदतों के बने हैं।
वे हज़ारों चिड़ियाँ,
जो उड़ना नहीं भूलतीं,
बस
उड़ान को
ज़रूरत से ज़्यादा
सपना
मानने लगती हैं।
और वह
आज भी, अब भी,
ओसरी में खड़ा
मुस्कुराता है
और
गिनती करता है
कभी चिड़ियों की,
कभी पिंजरों की।

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