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शनिवार, सितंबर 20

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
✍️ अनीता सैनी

…..
अब और लड़ाई
लड़ने का मन नहीं करता,
फिर भी मैं
तेरे लिए यह राह बुहार रही हूँ—
ताकि तेरे पाँव में
काँटे न चुभें,
तेरे सपनों पर
अंधेरे की गाज न गिरे।

अज्ञान के हाथों,
रूढ़ियों और परंपराओं की भारी चादर
तू न ओढ़े—
जिसे समय
वर्तमान बनकर
एक बार अतीत पर डाल चूका है।

बहुत पीड़ा होती है
जब मैं कहती हूँ—
बरगद पौधे नहीं पनपने देता,
उसकी छाँव विचार निगल जाती है,
और उसके फैसले
अहंकार की कोख में
अजनमे मर जाते हैं।
उनकी दीवारें ऊँची नहीं,
बस कैदखाने हैं।

और देख—
एक दिन यही पगडंडियाँ
राजमार्ग बनेंगी,
जहाँ तू निर्भय चल सकेगी।
तेरी साँसों में होगा आकाश,
तेरे स्वप्नों में रोशनी,
तेरी हँसी में
मुक्ति का संगीत।

इसलिए मैं खड़ी हूँ—
समय की झुर्रियाँ और उम्र की धूल की ढाल लिए,
तेरे लिए,
उन सभी पैरों के लिए
जो उजाले के हक़दार हैं।

मुझे पता है—
आत्मा के भीतर दबे विचार
जब बोल नहीं पाते,
तो उनका भी दम घुटता है,
जैसे घूँघट में
सिसकते होंठ
और वे थकी दो आँखें।

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