जड़ में जीवन है
(विरह के पार — आत्मा का शोर)
✍️ अनीता सैनी
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तुम मन की माया के
सारे खेल खेलना,
जब भी मन करे —
तुम प्रेम के दरिया में उतरना,
बार-बार उतरना।
विरह को पढ़ना
बार-बार पढ़ना,
जैसे पढ़ी हो तुमने
अष्टावक्र की गीता —
जो शब्दों में नहीं,
मौन में खुलती है।
और जब मौन भी
अपने अर्थ खोने लगे,
देह की अग्नि में
अपने ही विचारों का कोयला डालना —
और थोड़ा और धधकना,
जैसे हवन-कुंड में
शाम की आँच सुलगती हो।
और फिर भी न माने मन —
तुम मन के रिक्त पात्र में
थोड़ा और प्रेम भरकर
कविता अर्पित करना।
आत्मा के कुएँ से
एक घूँट जल खींचना,
श्वास की नमी से
थके प्राणों को सींचना —
जैसे पनघट पर
घट के संग गुनगुनाती हो चाँदनी।
तुम विरह को लिखना —
बार-बार लिखना,
जी-भर लिखना,
जैसे किसी के आँसुओं ने ही
तुम्हारे लिए गढ़ा हो
कागज़।
और जब अक्षर भी
कंपकंपाने लगें —
भाल पर शीतल चाँदनी का तिलक करना,
और पृथ्वी की धड़कन पर
ध्यान धरना।
तुम विरह को देखना —
बार-बार, पलट-पलट कर देखना,
जैसे कोई संत
अपने ही ध्यान का साक्षी हो।
पर तुम विरह में उतरना मत —
उसकी जड़ों में जीवन बहता है,
जो तुम्हें
मरने नहीं देगा।
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