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मंगलवार, अक्तूबर 13

मैं और मेरा मन


मैं और मेरा मन 
सभ्यता के ऐंद्रजालिक अरण्य में 
भटके नहीं विचरण पर थे 
दृश्य कुछ जाने-पहचाने  
सिमटी-सी भोर लीलाएँ लीन 
बुझते तारे  प्रभात आगमन 
मैं मौन मन लताओं में उलझा 
अस्तित्व ढूँढ़ता सुगबुगाया 
निश्छल प्रकृति का है कौन ?
देख वाक़या धरणी पर 
शंकित आहान बिखरे शब्द 
वृक्ष टहनियों में  स्वाभिमान  
पशु-पक्षी हाथ स्नेह के थाल  
सुंदर सुमन क्रीड़ा में मग्न 
प्रकृति कर्म स्वयं पर अडिग  
सूरज-चाँद पाबंद समय के
शीतल नीर सहज सब सहता 
पर्वत चुप्पी ओढ़े मौन वह रहता 
अचरज आँखों में उपजा मन के 
निकला लताओं के घेरे से 
मानव नाम का प्राणी देखा !
सींग शीश पर उसके चार 
काया कुपित काजल के हाथ 
नींद टाँग अलगनी पर बैठा 
आँखों में आसुरी शक्ति का सार  
वैचारिक द्वंद्व दिमाग़ पर हावी 
 भोग-विलास में लिप्त इच्छाएँ अतृप्त 
काज फिरे कर्म कोसता आज 
धड़कन दौड़ने को आतुर 
नब्ज़ ठहरी सुनती न उसकी बात 
हाय ! मानव की यह कैसी ज़ात 
मन सुबक-सुबककर रोया 
आँख का पानी आँख में सोया।

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

28 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर विचारणीय कविता, अनिता दी।

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    1. दिल से आभार प्रिय ज्योति बहन मनोबल बढ़ाने हेतु।

      हटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 13 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रकृति और मानव प्रवृत्ति पर बहुत सुन्दर शब्द चित्र ! गहन भावाभिव्यक्ति ।

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    1. दिल से आभार आदरणीय मीना दी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-10-2020) को   "रास्ता अपना सरल कैसे करूँ"   (चर्चा अंक 3854)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

      हटाएं
  5. वैचारिक द्वंद्व दिमाग़ पर हावी
    श्रृंगार में लीन इच्छाएं अतृप्त
    काज फिरे कर्म कोसता आज
    धड़कन दौड़ने को आतुर
    नब्ज़ ठहरी सुनती न उसकी बात
    हाय ! मानव की यह कैसी जात
    मन सुबक-सुबककर रोया
    आँख का पानी आँख में सोया। बेहतरीन रचना सखी।

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  6. उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीय दी ...दिल से आभार मनोबल बढ़ाने हेतु।

      हटाएं
  7. वैचारिक द्वंद्व दिमाग़ पर हावी
    श्रृंगार में लीन इच्छाएं अतृप्त
    काज फिरे कर्म कोसता आज
    धड़कन दौड़ने को आतुर
    नब्ज़ ठहरी सुनती न उसकी बात
    हाय ! मानव की यह कैसी जात
    मन सुबक-सुबककर रोया
    आँख का पानी आँख में सोया
    आज का मानव आसुरी प्रवृत्तियों के वशीभूत अपने ही दिल से दूर सचमुच दर्दनाक जीवन जी रहा है
    बहुत ही लाजवाब विचारमंथन करता सृजन
    वाह!!!

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    1. दिल से आभार आदरणीय सुधा दी आपकी प्रतिक्रिया मेरा संबल है।स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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  8. उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।

      हटाएं
  9. बहुत मार्मिक और कारुणिक कटु सत्य !
    घोर भौतिकतावादी और स्वार्थ में आकंठ डूबा हुआ मनुष्य प्रकृति की सरलता, उसकी सहजता, उसकी निश्छलता और उसके सौन्दर्य से बहुत दूर हो चूका है. उसकी अदम्य इच्छाएँ प्रकृति का अनवरत दोहन कर रही हैं और मानवता बेबस होकर, मूक दर्शक बन अपना ही अंतिम संस्कार होते देख रही है.

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय जैसवाल जी सर मनोबल बढ़ाती सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा ।
      आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर प्रणाम

      हटाएं
  10. उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।

      हटाएं
  11. उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।

      हटाएं
  12. धड़कन दौड़ने को आतुर
    नब्ज़ ठहरी सुनती न उसकी बात
    हाय ! मानव की यह कैसी ज़ात 👏

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