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शनिवार, मार्च 6

निर्वाण ( स्वप्न की अनुगूँज)

भाग -२ 

 स्वप्न की अनुगूँज


बुद्धतत्त्व की अन्वेषणा,मनस्वी कानन-कानन डोले

बुद्ध छाँव बने, बुद्ध ही बहता झरना बन बोले

हे प्रिय! पहचानो नियति जीवनपथ की

कंकड़-पत्थर झाड़-झंकार गति जीवनरथ की।


गरजते मेघों से क्यों चोटिल स्वयं को करना 

हवा की प्रीत बरसात के भावों को समझाना 

भांति-भांति के भ्रम भ्रमित कर भटकाएँगे

मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव दीप जलाएँगे।


परीक्षा पृथ्वी पर प्रीत के अटूट विश्वास की

यों व्यर्थ न गँवाओ प्रिय! अमूल्य लड़ियाँ श्वाँस की

तुम पुष्प बन खिल जाना मैं बनूँगा सौरभ 

तुम पेड़ बन लहराना मैं छाँव बनूँगा पथ गौरव।


परोपकार में निहित मानवता की  सुवास हूँ मैं

फल न समझना प्रिय! रसों में मिठास हूँ मैं

काया के शृंगार का न बोझ बढ़ाना तुम 

जीवन के अध्याय विरह को लाड़ लड़ाना तुम।


हे प्रिय! तुम करुणा के दीप जलाना 

दग्ध हृदय पर मधुर शब्दों के फूल बरसाना 

अँकुरित पौध सींचना स्नेह के सागर से

प्रेम पुष्प खिलेंगे छलकाओ सुधा मन गागर से।


सहसा निंद्रा से विचलित हो उठी मनस्वी 

हाय! भोर रश्मियों ने क्यों लूटी मेरे स्वप्न की छवि 

प्रिय!प्रिय!! कह पुकार बौराई बियाबान में

अनुगूँज से सहमी ध्वनि थी स्वयं के अंतरमन में।


ओह! कलरव की गूँज लालिमा धरा पर छाई 

पात-पात हर्षाए ज्यों प्रकृति दुग्ध से नहाई 

मन चाँदनी झरी ज्यों शीतल आभा-सी बरस आई  

प्रीतम की पीर नहीं मद्धिम हँसी होठों ने छलक आई।


अंतस ज्योत्स्ना मुख पर दीप्ति उभर आई थी 

उलझी-उलझी फिरे अकुलाहट निख़र आई थी 

पर्वत पाषाण पादप पात जहाँ दृष्टि वहीं बुद्ध

 काँटों की चुभन से प्रीत, प्रतीति में गवाई सुध।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


प्रथम भाग का लिंक 

भाग-१  निर्वाण  

 निर्वाण (मनस्वी की बुद्ध से प्रीत) 

34 टिप्‍पणियां:

  1. गरजते मेघो से क्यों चोटिल स्वयं को करना
    हवा की प्रीत बरसात के भावों को तुम समझना
    भांति-भांति के भ्रम भ्रमित कर भटकाएँगे
    मृगतृष्णा नहीं जीवन में, ठहराव दीप जलाएँगे
    ...अनोखी कृति, सुन्दरतम शैली, उत्कृष्ठ भाव व्यंजना और एक भावुक मन की व्याकुल विरह वेदना का कारुणिक चित्रण।।।। शब्द-शब्द भाव लेकर बहशपडे हैं। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया अनीता सैनी जी।

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    1. आभारी हूँ सर।
      सारगर्भित प्रतिक्रिया सृजन को सार्थक करने हेतु।
      सादर नमस्कार।

      हटाएं
  2. बुद्ध से प्रीत अनोखा
    सुंदर शैली में लेखन
    भाव लिए।
    गुजरे वक़्त में से...

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय रोहिताश जी।
      सादर

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  3. समस्त जड.-चेतन का सारतत्व समाया है मनस्वी की प्रीत में ।
    स्वप्नों की अनुगूंज सम्पूर्ण प्रकृति को स्वयं में समाहित किये है ।
    अद्भुत और अप्रतिम सृजन ।

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    1. सादर आभार आदरणीय मीना दी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

      हटाएं
  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-03-2021) को    "किरचें मन की"  (चर्चा अंक- 3998)     पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय शास्त्री जी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  5. उत्कृष्ट भाव और शैली आ0

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  6. मंत्रमुग्ध करती रचना - - कुछ बुद्धमय कुछ यशोधरा का मौन समर्पण - - दिव्यता की ओर ले जाते हैं - - साधुवाद सह।
    बहुत सुन्दर सृजन।

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    1. आभारी हूँ सर।
      आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मेरा संबल बढ़ाती हूँ।
      सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आपकी।
      सादर

      हटाएं
  7. वाह! बहुत सुंदर काव्य! सुंदर भाषाशैली, और बहुत ही सुंदर भाव । प्रणाम स्वीकारकरें 🙏

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    1. आभारी हूँ आदरणीय अरविन्द जी।
      सादर

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  8. अत्यंत शीतल भाव धारा ।

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  9. प्रकृति और प्रेम दोनो का ही अद्भुत वर्णन ।।
    बहुत सुंदर ।

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    उत्तर
    1. दिल से आभार आदरणीया संगीता दी जी।
      सादर

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  10. लाजवाब, बहुत ही सुंदर वर्णन , महिला दिवस की बधाई हो आपको शुभ प्रभात, इस खूबसूरत रचना के लिए भी बधाई हो

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    1. आभारी हूँ आदरणीया ज्योति सिंह जी।
      सादर

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  11. बहुत सुंदर जब आत्मा पर आछादित मैल के आवरण छूटने लगते हैं यूं ही विचलित हो प्राणी सत्य को खोजने को लालायित होता है, और इसी खोज का चरम ही तो सिद्धत्व हैं अजय अमर अविनाशी।
    अप्रतिम सृजन , सुंदर शब्द चयन, शानदार भाव प्रवाह।
    अद्भुत काव्य सरि बह चली है प्रिय अनिता ये सृजन आपकी साहित्य यात्र में मील का पत्थर साबित होगा।
    शुभकामनाएं ‌

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    1. दिल से आभार प्रिय कुसुम दी जी मनोबल बढ़ाती सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु। आपकी अनमोल प्रतिक्रिया दिल में सहेजकर रखूँगी।थक गई उस दिन जरुर दोहराऊँगी।
      स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
      एक बार फिर आपको दिल से आभार।
      सादर

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  12. अनीता, बौद्ध दर्शन के मर्म को और उसमें करुणा की महत्ता को तुमने आत्मसात किया है.
    भगवान् बुद्ध ने स्वयं मोक्ष-प्राप्ति के बाद करुणा के वशीभूत होकर मानव-कल्याण के विषय में सोचा.
    बहुत सुन्दर कविता !

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    1. सहृदय आभार सर।
      आपको नहीं पता आपकी प्रतिक्रिया मेरे काव्य पथ पर अमूल्य है। जिस विचारों के साथ पथ पर चल रही हूँ उन्हें सार्थकता प्राप्त हुई।अत्यंत हर्ष हुआ।
      आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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  13. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय सुशील जी सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
      सादर

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  14. उत्कृष्ट भावशैली में बहुत सुंदर काव्य, अनिता दी।

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    उत्तर
    1. दिल से आभार आदरणीय ज्योति बहन।
      सादर

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  15. प्रथम भाग से संयुक्त करते हुए ही इसे पढ़ा है मैंने अनीता जी । मनमोहक सृजन है यह, निश्चय ही ।

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    उत्तर
    1. आभारी हूँ सर मनोबल बढ़ाती सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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  16. पढ़ कर बहुत खुशी मिली
    बेहतरीन सृजन

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  17. खूबसूरत भाषा शैली ,भावों का बहता प्रवाह .....लाजवाब सृजन प्रिय अनीता ।

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    उत्तर
    1. आभारी हूँ आदरणीया शुभा दी।
      प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हूआ।
      स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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