Powered By Blogger

शनिवार, जनवरी 7

ग्रामीण स्त्रियाँ



कोहरे की चादर में 

लिपटी सांसें

उठने का हक नहीं है

इन्हें !

जकड़न सहती

ज़िंदगी से जूझती ज़िंदा हैं

टूटने से डरतीं 

वही कहती हैं जो सदियाँ

कहती आईं 

वे उठने को उठना और

बैठने को

 बैठना ही कहतीं आईं हैं 

पूर्वाग्रह कहता है 

तुम 

घुटने मोड़कर 

बैठे रहो!

उठकर चलने के विचार मात्र से

छिल जाती है

 विचारों के तलवों की 

कोमल त्वचा।


@अनिता सैनी 'दीप्ति'

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना सोमवार 9 जनवरी 2023 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    जवाब देंहटाएं
  2. निःशब्द करती गहन अभिव्यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! कविता पढ़कर मन कैसा ठहर गया है, विचारों के भी तलवे होते हैं और उनकी कोमल त्वचा !! अद्भुत!

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह!प्रिय अनीता ,खूबसूरत सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  5. मर्मस्पर्शी ,बेहतरीन अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  6. हृदय स्पर्शी सृजन सखी बहुत ही सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  7. विचार उठे तो पूर्वाग्रह बदल न जायं
    बहुत सुंदर चिंतनपरक सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  8. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (12-1-23} को "कुछ कम तो न था ..."(चर्चा अंक 4634) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  9. बेहतरीन भवाभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  10. साँसों को फिर भी उठाना होता है चलना होता है ...
    नही तो जीवन कहाँ रहता है ...

    जवाब देंहटाएं