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सोमवार, अगस्त 14

गाँव


गाँव / अनीता सैनी 'दीप्ति'

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मेरे अंदर का गाँव

शहर होना नहीं चाहता 

नहीं चाहता सभ्य होना

घास-फूस की झोंपड़ी

मिट्टी पुती दीवार 

जूते-चप्पल 

झाड़ू छिपाने से परहेज करता 

वह शहर होने से घबराता है 

पूछता है- ”जीवन बसर करने हेतु

सभी को शहर होना होता है?”

आंतोनियो कहते हैं-

”मोहभंग न होते हुए

बिना भ्रम का जीवन जीना।”

जैसे मेड़ पर खड़े पेड़-पौधों के

 शृंगार की धुलती मिट्टी

 जीवंतता से भर देती है उन्हें 

जीवन के कई-कई 

अनछुए दिन-रात

दौड़ गए तिथियों की लँगोट पहने

शहर होने की होड़ में 

अब पैरों से एक क्षण की बाड़

न लाँघी जाती 

नुकीली डाब 

पाँव में नहीं धँसती 

हृदय को बिंधती है 

 न अंबर को छूना चाहता है 

न पाताल में धँसना चाहता है

थोड़ी-सी जमी

मेरे अंदर का गाँव जीना चाहता है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 16अगस्त 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

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  2. वाह! सुंदर कामना, शहर होना सबके लिए ज़रूरी तो नहीं

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  3. बेहद खूबसूरत भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति । शहरों की नींव का आधार गाँव ही होते हैं जो अक्सर महसूस होते हैं अपनी झलक के साथ ।

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  4. बहुत ही सुन्दर सृजन

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