✍️ अनीता सैनी
...
और कुछ नहीं—
बस ठठा उठता है वह पल,
जब दरिद्र हो जाती है मेरी कल्पना,
मानो चेतना का स्रोत ही
क्षण भर में सूख गया हो।
शब्दों का अंबार होते हुए भी
विचार रिक्त खड़े रह जाते हैं—
जैसे मानो
मौन ही आखिरी सत्य बनकर
हर तर्क और हर अभिव्यक्ति को
अर्थहीन कर देता है।
मैं लिखना चाहूँ भी तो
शब्द ठिठक जाते हैं,
क्योंकि सामने तुम्हारा प्रतिबिंब है—
जो मेरे अल्प विचारों की सीमा को
छिन्न-भिन्न कर देता है,
और मेरे भावों को उस
अनन्त के सामने लज्जित कर देता है।
मेरी पंक्तियों में जितना समा पाता है,
उससे कहीं अधिक विराट
व्यथा का प्रतिबिंब
कल्पना के दर्पण में झलक उठता है—
जहाँ कोनों की कोरी चुप्पी
तुम्हारी प्रतीक्षा में
बिलखती रह जाती है।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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