Powered By Blogger

शनिवार, सितंबर 22

तृष्णा

पल -पल  बहती,
हर  पल  कहती,
ज़हन  में  मचलती,
साँसों  में  सुलगती,
प्रज्ञा   को   दबाती,
कोई  और   नहीं,
मानव   की  तृष्णा,
उसे  सताती।

नैतिकता को दूर  बिठाती,
कृत्य-अकृत्य सब करवाती,
राह सुगम  और
जल्द  पहूँचाये,
इसी   सोच  को  गले  लगाती,
कोई  और  नहीं,
यही  तृष्णा  मानव  को  नचाती ।

लालायित  मन  दौड़  लगाता,
सुकूं की छाँव कभी न पाता,
ऐसी   विपदा,
 हार  न   पाती,
थक जाता,
लड़खड़ाता जाता,
कोई और नहीं,
यही तृष्णा,
आँचल  थामे  ख़ूब लुभाती ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें