दुआ बन जाती है माँ
सज्दे में झुका शीश,
दुआ बन जाती है माँ
ज़िंदगी के तमाम ग़म,
सीने से लगा भुला देती माँ
चोट का मरहम, दर्द की दवा,
सुबह की गुनगुनी धूप है माँ
वक़्त-बे-वक़्त हर गुनाह धो देती,
नाजुक़ चोट पर रो देती है माँ
नाज़ुक डोरी से रिश्तों को सिल देती,
उन्हीं रिश्तों में सिमट जाती है माँ
-अनीता सैनी
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