नमी की आवाज़
✍️ अनीता सैनी
दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,
बादलों ने करवट नहीं बदली—
पर बरसात अब भी होती है।
वे पगडंडियाँ अब जंगल को नहीं चीरतीं,
पेड़ पानी पीकर
नदियों की प्यास भुला देते हैं।
ओसारे से टपकती बोरियाँ
भीतर रखे दाने गीला कर देती हैं।
दीवारों से सीलन टपकती है,
कोनों का दिया बुझकर
धुआँ छोड़ जाता है।
वही दिन—
आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।
और साँझ—
कागज़ का थैला सँभालते हुए
अनाज के साथ
समय का भार भी ढोती है।
भूल जाते हैं सब—
कि गली के उस मोड़ पर
वही कौआ अब भी काँव-काँव करता है।
कि पैरों के निशान कभी मिटते नहीं,
बस मिट्टी में धँसकर
अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।
जब हवा अचानक खिड़कियों को झकझोरती है,
चूल्हे की हांडी उबलकर
घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।
बरामदे के पौधे
अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—
मानो विनम्रता का भार उठा रहे हों।
रात के हाथ
आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।
और सन्नाटा
अपनी थाली बजाकर संकेत देता है—
कि भूल न जाना—
बरसात अब भी होती है।
और तुम्हारे पाँव हैं कि
पराई धरती पर भी
अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।
बरसात अब भी होती है।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना