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बुधवार, सितंबर 12

तलब मंज़िल की



सीने  में  सिसक रही,
शिद्दत उसे पाने  की,
क़दम लड़खड़ा  रहे,
चाहत रही  गले लगाने  की,
हौसले  कब  डगमगाये  ?
रफ़्तार  रही ,
आसमा  को  छूने  की।

न मंज़िल  के निशां होते,
न  क़दमों में मक़ाम होता,
गर  राहों में काँटे न होते,
न  मिलती तपती धूप,
न क़दमों को गति मिलती,
न मंजिल की तलब होती।

गर मिल जाती सुकूँ  की छाँव,
बहता शीतल जल,
मिल जाता सफ़र में ठाव ,
न होती यह महफ़िल,
न थिरकते  ये  पाँव।

#अनीता सैनी 

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