गूँगी गुड़िया
अनीता सैनी
बुधवार, अक्टूबर 22
जड़ में जीवन है
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
रविवार, अक्टूबर 12
शैवाल से शिला तक
शैवाल से शिला तक
✍️ अनीता सैनी
—
वह समय —
जो कभी नहीं लौटता,
जिसका अब जीवन में कोई औचित्य नहीं,
वही सबसे अधिक बुलावा भेजता है;
कोस मीनार-सा खड़ा,
अनुगूंज बनकर कहता है —
मेरी नाड़ी में अब भी
एक अनसुनी प्रतीक्षा धड़कती है।
मैं अब भी यहीं हूँ —
जहाँ शब्द थम जाते हैं,
और दृष्टि
प्रतीक्षा के जल में
अपना प्रतिबिंब टटोलती है।
वर्षों से थामी इस डोर का सिरा,
विश्वास की नमी में भीगा है,
पर टूटा नहीं —
बस समय की उँगलियों में
उलझा पड़ा है।
और कहता है —
प्रतीक्षा सूखती नहीं अंत में,
ढूँढती है कि
क्या कोई अब भी वहाँ है,
जहाँ से वह चला था।
जहाँ —
समय की साँसों पर
स्मृतियों के शैवाल उग आए हैं;
वे शैवाल,
हरे हैं — पर थके हुए,
जो अब धीरे-धीरे
एक कोरी
शिला बनते जा रहे हैं।
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
गुरुवार, अक्टूबर 9
मौन का शास्त्र
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
गुरुवार, अक्टूबर 2
सूखा कुआँ
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
शुक्रवार, सितंबर 26
चेतना का मानचित्र
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
शनिवार, सितंबर 20
प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
रविवार, सितंबर 14
नमी की आवाज़
नमी की आवाज़
✍️ अनीता सैनी
दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,
बादलों ने करवट नहीं बदली—
फिर भी बरसात उतर आती है।
वे पगडंडियाँ जंगल तक नहीं पहुँचतीं,
पेड़ पानी पीकर
नदियों की प्यास भुला देते हैं।
ओसारे में टपकती बोरियाँ
भीतर रखे दाने भिगो देती हैं।
दीवारों से सीलन रिसती है,
कोनों का दिया बुझकर
धुआँ छोड़ जाता है।
दिन—
आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।
साँझ—
कागज़ का थैला सँभालते हुए
अनाज के संग
समय का भार भी ढोती है।
भूल जाते हैं सब—
गली के उस मोड़ पर
वही कौआ काँव-काँव करता है।
पाँवों के निशान मिटते नहीं,
मिट्टी में धँसकर
अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।
हवा खिड़कियाँ झकझोरती है,
चूल्हे की हांडी उबलकर
घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।
बरामदे के पौधे
अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—
मानो विनम्रता का भार उठाए हों।
रात के हाथ
आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।
सन्नाटा
अपनी थाली बजाकर याद दिलाता है—
कि बरसात अब भी होती है।
और तुम्हारे पाँव हैं कि —
पराई धरती पर भी
अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
सोमवार, सितंबर 8
अस्तित्व का बहना
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
गुरुवार, सितंबर 4
अधूरेपन का आकाश
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
