गुज़रे छह महीनों ने पी है अथाह पीड़ा 
 पिछले सौ साल की त्रासदी की।
पीली पड़ चुकी है छरहरी काया इनकी 
हर दिन की सिसकियाँ सजी हैं ज़ुबाँ पर।
तुम्हें देख एक बार फिर हर्षाएँगे ये दिन  
छिपाएँगे आँखों के कोर में खारा पानी।
कभी काजल तो कभी सुरमा लगाएँगे 
बिंदी बर्दास्त न करेगी तुम्हें हर बात बताएगी। 
इनकी ख़ामोशी में तलाशना शब्द तुम 
मोती की चमक नहीं सीपी की वेदना समझना तुम। 
छह महीने देखते ही देखते एक साल बनेगा 
पड़ता-उठता फिर दौड़ता आएगा यह वर्ष 
इसकी फ़रियाद सुनना तुम।
भविष्य बन मिलोगे यायावर की तरह तुम 
कुछ पल बैठोगे बग़ल में अनजान की तरह। 
ये दिन-महीने तुम्हें अपने ज़ख़्म दिखाएँगे
  मरहम लाने का बहाना बनाकर
 उन्मुक्त पवन की तरह बह जाओगे तुम। 
©अनीता सैनी 'दीप्ति'


 
 








