रविवार, जून 1
कोख से कंठ तक

बुधवार, अप्रैल 23
स्मृति के छोर पर
२२ अप्रैल २०२५
….
अपने अस्तित्व से मुँह फेरने वाला व्यक्ति,
उस दिन
एक बार फिर जीवित हो उठता है,
जब वह धीरे-धीरे
अपने अब तक के, जिए जीवन को
भूलने लगता है।
उसे समझ होती है तो बस इतनी कि
धीरे-धीरे भूलना
और
अचानक सब कुछ भूल जाना —
इन दोनों में अंतर है।
एक जीवन है,
तो दूसरा मृत्यु।
उसे जीवन मिला है —
वह धीरे-धीरे स्वयं को भूल रहा है,
क्योंकि वह अब भी
भोर को ‘भोर’ के रूप में पहचानता है।
जब वह सुबह उठता है,
तो वह
सुबह को ‘सुबह’ के रूप में पहचानता है।
वह
‘न पहचान पाने’ की पीड़ा को भी पहचानता है।
वह दिन में नहीं सोता —
इस डर से नहीं कि रात को उठने पर
कहीं वह रात को
‘रात’ के रूप में पहचान न पाया तो,
बल्कि इसलिए
कि वह
दिन को ‘दिन’ के रूप में पहचानता है,
और स्वयं को पुकारता है
टूटती पहचान की अंतिम दीवार की तरह।

शनिवार, अप्रैल 19
नीरव सौंदर्य
१८अप्रैल २०२५
….
आश्वस्त करती
अनिश्चितताएँ जानती हैं!
घाटियों में आशंकाएँ नहीं पनपतीं;
वहाँ
मिथ्या की जड़ें
गहरी नहीं, अपितु कमजोर होती हैं।
वहाँ अंखुए फूटते हैं
उदासियों के।
जब उदासियाँ
घाटियों में बैठकर कविताएँ रचती हैं,
तब उनके पास
केवल चमकती हुई दिव्य आँखें ही नहीं होतीं,
अपार सौंदर्य भी होता है।
नाक, सौंदर्य का एक अनुपम उदाहरण है,
जिसकी रक्षा आँखें आजीवन करती हैं।
वे यूँ ही नहीं कहतीं—
"कविता प्यास है न हीं तृप्ति
बस
एक घूंट पानी है।"

सोमवार, अप्रैल 14
प्रतीक्षा का अंतिम अक्षर

मंगलवार, मार्च 25
तुम कह देना

सोमवार, मार्च 24
कविता
कविता-
माथे पर लगी
न धुलने वाली कालिख नहीं है,
और न ही
आत्मा का अधजला टुकड़ा है।
वह
सूखी आँखों से बहता पानी है —
कभी न पूरी होने वाली
प्रतीक्षा है
शिव के माथे पर चमकता
अक्षत है।
गुरुर करते
वे तीन बेलपत्र हैं,
जिन पर लगा लाल चंदन
और मधु,
प्रीत की भाषा पढ़ाता है।
शब्दों के वार न तोड़ो,
वह
शिवालय के चौखट की रज़ है।

सोमवार, फ़रवरी 17
निराशा का आत्मलाप
निराशा का आत्मलाप / अनीता सैनी
१६फरवरी २०२४
….
उबलता डर
मेरी नसों में
अब भी
सांसों की गति से तेज़ दौड़ रहा है,
जो कई रंगों में रंगा,
चकत्तों के रूप में
मेरी आँखों में उभर-उभर कर
आ रहा है।
आँखों से संबंधित रोग की तरह,
जो
मेरी काया को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा है
और आत्मा को गहरे शून्य में डुबो रहा है।
अलविदा—
गहरे कोहरे में हिलता हाथ,
या जैसे
कोई समंदर के बीचो-बीच
डूबता हुआ एक हाथ।
मुझे पता है,
यह एक कछुए का हाथ है,
परंतु
ये मेरे वे निराशाजनक दृश्य हैं,
जिन्हें मुझे अकेले ही जीना है।

रविवार, जनवरी 19
अधूरे सत्य की पूर्णता

सोमवार, जनवरी 13
बालिका वधू

रविवार, जनवरी 5
बुकमार्क
बुकमार्क / अनीता सैनी
३जनवरी २०२५
……
पुस्तक —
प्रभावहीन शीर्षक,
आवरण, तटों को लाँघती नदी,
फटा जिल्द,
शब्दों में
उभर-उभरकर आता ऋतुओं का पीलापन,
कुछ पन्नों के बाद
पाठक द्वारा लगाया बुकमार्क
उसे रसहीन बताता रहा।
पुस्तक के अनछुए पन्ने,
व्यवस्थित रहने का सलीका ही नहीं,
मौन में मधुर स्मृतियों को पीना सिखाते रहे।
उसे बार-बार हिदायत देते रहे—
न पढ़ पाने की पीड़ा में
न अधिक चिल्लाकर रोना है,
और न ही
ठहाका लगाकर हँसना है।
चेतावनी—
सिले होठों से भाव अधिक मुखर होते हैं।
इतने शालीन ढंग से टिके रहना,
कि समय
पन्नों से हवा के ही नहीं,
आँधियों के भी आँसू पोंछ सके।
पुस्तक—
कोने में
स्वयं को पढ़ती है, पढ़ती है
तटों को तोड़ती एक-एक धारा को।
उसे न पढ़ पाने की पीड़ा नहीं कचोटती,
कचोटता है—
बिना पढ़े लगाया बुकमार्क।
