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रविवार, नवंबर 2

रेत भी प्रेम में उतरती है


रेत भी प्रेम में उतरती है

✍️ अनीता सैनी
………
रेत —
बहुत धीरे-धीरे बहती है,
जैसे मरुस्थल ने
पानी की स्मृति को
कंठ में रोक लिया हो।

वह जानता है —
प्यास, कोई दोष नहीं —
एक साधना है।

रेत का हर कण
किसी बीते समंदर की याद है —
जो अपनी ही देह में सूख गया,
पर स्वर अब भी नम है।

धूप दिन-भर
परछाई बुनती रहती है;
उसकी उँगलियों पर अब भी
मदार की छाया ठहरी है —
छाया,
थोड़ी-सी ठंडी,
थोड़ी बुझी-बुझी,
थकान में बंधी।

मदार के फूलों का
सूखता जीवन —
उन्होंने अपना स्वर खो दिया,
जैसे समय ने किसी मधुरता को
अनजाने में दंडित कर दिया हो।

मरुस्थल में कोई लहर नहीं उठती,
पर उसकी हर रेखा में
जल की एक अनकही आकांक्षा है।
वह लहर भीतर ही भीतर चलती है —
निराकार, मौन, पर अडिग।

कहीं कुछ नहीं हिलता-डुलता,
फिर भी सब कुछ
बहता रहता है।

प्रतीक्षा यहाँ कोई मुद्रा नहीं,
एक देह है —
जो रेत ओढ़े बैठी है,
और जिसके नेत्रों में अब भी
समंदर का नीला स्थिर है।

वह अब कोई शब्द नहीं,
रेत के भीतर की बनावट है —
शायद इसलिए,
रेत भी प्रेम में उतरती है।

बुधवार, अक्टूबर 22

जड़ में जीवन है


जड़ में जीवन है
(विरह के पार — आत्मा का शोर)
✍️ अनीता सैनी
---
तुम मन की माया के
सारे खेल खेलना,
जब भी मन करे —
तुम प्रेम के दरिया में उतरना,
बार-बार उतरना।

विरह को पढ़ना 
बार-बार पढ़ना,
जैसे पढ़ी हो तुमने
अष्टावक्र की गीता —
जो शब्दों में नहीं,
मौन में खुलती है।

और जब मौन भी
अपने अर्थ खोने लगे,
देह की अग्नि में
अपने ही विचारों का कोयला डालना —
और थोड़ा और धधकना,
जैसे हवन-कुंड में
शाम की आँच सुलगती हो।

और फिर भी न माने मन —
तुम मन के रिक्त पात्र में
थोड़ा और प्रेम भरकर
कविता अर्पित करना।

आत्मा के कुएँ से
एक घूँट जल खींचना,
श्वास की नमी से
थके प्राणों को सींचना —
जैसे पनघट पर
घट के संग गुनगुनाती हो चाँदनी।

तुम विरह को लिखना —
बार-बार लिखना,
जी-भर लिखना,
जैसे किसी के आँसुओं ने ही
तुम्हारे लिए गढ़ा हो
कागज़।

और जब अक्षर भी
कंपकंपाने लगें —
भाल पर शीतल चाँदनी का तिलक करना,

और पृथ्वी की धड़कन पर
ध्यान धरना।

तुम विरह को देखना —
बार-बार, पलट-पलट कर देखना,
जैसे कोई संत
अपने ही ध्यान का साक्षी हो।

पर तुम विरह में उतरना मत —
उसकी जड़ों में जीवन बहता है,
जो तुम्हें
मरने नहीं देगा।


रविवार, अक्टूबर 12

शैवाल से शिला तक


शैवाल से शिला तक

✍️ अनीता सैनी

वह समय —

जो कभी नहीं लौटता,

जिसका अब जीवन में कोई औचित्य नहीं,

वही सबसे अधिक बुलावा भेजता है;

कोस मीनार-सा खड़ा,

अनुगूंज बनकर कहता है —

मेरी नाड़ी में अब भी

एक अनसुनी प्रतीक्षा धड़कती है।



मैं अब भी यहीं हूँ —

जहाँ शब्द थम जाते हैं,

और दृष्टि

प्रतीक्षा के जल में

अपना प्रतिबिंब टटोलती है।


वर्षों से थामी इस डोर का सिरा,

विश्वास की नमी में भीगा है,

पर टूटा नहीं —

बस समय की उँगलियों में

उलझा पड़ा है।


और कहता है —

प्रतीक्षा सूखती नहीं अंत में,

ढूँढती है कि

क्या कोई अब भी वहाँ है,

जहाँ से वह चला था।


जहाँ —

समय की साँसों पर

स्मृतियों के शैवाल उग आए हैं;

वे शैवाल,

हरे हैं — पर थके हुए,

जो अब धीरे-धीरे

एक कोरी

शिला बनते जा रहे हैं।

गुरुवार, अक्टूबर 9

मौन का शास्त्र



मौन का शास्त्र
✍️ अनीता सैनी

स्त्री—
आँचल में सूरज की तपिश छिपा लेती है,
ओस की बूँदों से चाँद को पोंछ देती है।
पग-पग पर शांति के पदचिह्न रचती है,
और अगली सुबह—
दुनिया उसे परिवर्तन की गूँज कहती है।

वह अपने सुख
दूसरों की रोटी में सेंककर बाँट देती है,
अपने स्वप्न
घर की देहरी पर दीपक बनाकर जला देती है,
और लौटकर पाती है केवल—
व्यंग्य, उपेक्षा, अपमान का अंधकार।

कितना गहरा विरोधाभास है यह—
जहाँ त्याग को पूजा की वेदी कहा जाता है,
वहीं त्यागिनी को
संशय और तिरस्कार की जंजीरों में बाँधा जाता है।

वह स्त्री—
अपमान को भी
पवित्रता की वेदी पर चढ़ा देती है,
मानो आत्मा का स्वर्ण
कभी कलंकित हुआ हो।
वह जानती है—
काँटे चुभते हैं तो भी
फूल की सुगंध निर्दोष रहती है।

विचित्र है यह संसार—
त्याग को भक्ति कहकर गाता है,
पर वही स्त्री
जीते-जी अवमानना की चिता में झोंकी जाती है।

फिर भी—
उसकी आत्मा जलती नहीं,
बल्कि और उजली होती जाती है।
जैसे अंधकार बढ़े
तो तारे और प्रखर चमकने लगते हैं।

वह स्त्री—
एक दिन,
अपनी चुप्पी में
जीवन का सबसे गहन शास्त्र लिखती है।


गुरुवार, अक्टूबर 2

सूखा कुआँ

सूखा कुआँ
✍️ अनीता सैनी

…..

जीवन के सारे जतन
धरे के धरे रह जाते हैं,
जब कोई उस कुएँ की जगत पर बैठता है
जहाँ अब पानी नहीं खिंचता—
और वहीं से
स्मृतियों का घड़ा
फिर-फिर भरकर लौट आता है।

वह घड़ा भारी लगता है,
मानो अदृश्य पीड़ा का बोझ
कंधों पर रख दिया गया हो।
फिर भी—
नाउम्मीदी की अंधेरी सुरंग में
यदि धुंधली-सी कोई परछाईं उभर आए,
तो वही परछाईं
दूसरे छोर तक पहुँचने का
सबसे सुगम मार्ग बन जाती है।

मन जानता है—
वह रास्ता किसी न किसी दीवार में
धँस सकता है,
फिर भी वह
दरारों से रिसती रोशनी की
एक किरण खोज लेता है—
मानो किसी अनदेखे हाथ की छुअन,
जो अंधकार के भीतर भी
प्रकाश का आश्वासन देती रहती है।

शुक्रवार, सितंबर 26

चेतना का मानचित्र


चेतना का मानचित्र
✍️ अनीता सैनी
…..
इस मार्ग पर
चेतना का कोई मानचित्र नहीं है।
जहाँ पहुँचकर
उसे सूखने से बचाया जा सके—
वे पगडंडियाँ फिर लौट आती हैं,
जहाँ वह बार-बार ठिठकी थी।

रातें यहाँ धीमी-धीमी साँसें लेती हैं,
और कोई न कोई चेतना
हर सुबह उसके भीतर मरती है।
चेतना का यों मरना
उसकी नमी सोख लेता है।

बेहोशी की चाबी को हल्के से घुमाया जाता है—
नियंत्रित झटके से
शरीर लौट आता है
अपने पुराने रंगों में,
और फिर वहीं रचना शुरू होती है:
एक नई कहानी, वही पुरानी मिथ्या।

मन और मांस का यह खेल पुराना है—
पर हर बार नया प्रतीत होता है।

कमज़ोर चेतनाएँ चुपचाप मिट जाती हैं—
बिना कोई आहट।
कुछ कठोर चेतनाएँ शूल-सी चुभती हैं—
और मरती नहीं;
वे जागती हैं,
टूटे हुए दर्पणों को जोड़कर
अपना चेहरा बनाती हैं,
और उसी नए चेहरे के साथ
दुनिया से पूछती हैं—
"मृत्यु लोक में मैं ज़िंदा हूँ?"

कभी-कभी
एक आवाज़ आँधियों में खो जाती है,
कभी-कभी
एक ख़ामोश हँसी
रेत पर लकीर-सी झलक जाती है;
और साँसें चलने लगती हैं—
किसी मंज़िल की उम्मीद किए बिना—
क्योंकि हर कदम पर
कोई छोटा-सा अंत उसका इंतज़ार करता है।

प्रेम भी पत्तों-सा झरता है,
ताकि नई शाखाओं पर
फिर जन्म ले सके।
और वचन भी धूल में मिलकर
फिर से शब्द बन जाते हैं।

पर जो चेतनाएँ सघन होती हैं—
जो दीठ और ज्वलंत हैं—
वे उभर आती हैं,
बुझती नहीं,
और जगमगाती हैं अपना मार्ग।

दुनिया इसे जीवन कहती है,
पर वह जानती है—
यहाँ हर सुबह एक मौत-सी होती है,
और हर रात एक जन्म की तैयारी;
फिर भी वह मुस्कुराती है,
क्योंकि यह खेल
हर बार कुछ नए किरदारों से मिलता है।

शनिवार, सितंबर 20

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ

प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
✍️ अनीता सैनी

…..
अब और लड़ाई
लड़ने का मन नहीं करता,
फिर भी मैं
तेरे लिए यह राह बुहार रही हूँ—
ताकि तेरे पाँव में
काँटे न चुभें,
तेरे सपनों पर
अंधेरे की गाज न गिरे।

अज्ञान के हाथों,
रूढ़ियों और परंपराओं की भारी चादर
तू न ओढ़े—
जिसे समय
वर्तमान बनकर
एक बार अतीत पर डाल चूका है।

बहुत पीड़ा होती है
जब मैं कहती हूँ—
बरगद पौधे नहीं पनपने देता,
उसकी छाँव विचार निगल जाती है,
और उसके फैसले
अहंकार की कोख में
अजनमे मर जाते हैं।
उनकी दीवारें ऊँची नहीं,
बस कैदखाने हैं।

और देख—
एक दिन यही पगडंडियाँ
राजमार्ग बनेंगी,
जहाँ तू निर्भय चल सकेगी।
तेरी साँसों में होगा आकाश,
तेरे स्वप्नों में रोशनी,
तेरी हँसी में
मुक्ति का संगीत।

इसलिए मैं खड़ी हूँ—
समय की झुर्रियाँ और उम्र की धूल की ढाल लिए,
तेरे लिए,
उन सभी पैरों के लिए
जो उजाले के हक़दार हैं।

मुझे पता है—
आत्मा के भीतर दबे विचार
जब बोल नहीं पाते,
तो उनका भी दम घुटता है,
जैसे घूँघट में
सिसकते होंठ
और वे थकी दो आँखें।

रविवार, सितंबर 14

नमी की आवाज़

नमी की आवाज़

✍️ अनीता सैनी


दुपहर अब भी दूरियों को खुरचती है,

बादलों ने करवट नहीं बदली—

फिर भी बरसात उतर आती है।


वे पगडंडियाँ जंगल तक नहीं पहुँचतीं,

पेड़ पानी पीकर

नदियों की प्यास भुला देते हैं।


ओसारे में टपकती बोरियाँ

भीतर रखे दाने भिगो देती हैं।

दीवारों से सीलन रिसती है,

कोनों का दिया बुझकर

धुआँ छोड़ जाता है।


दिन—

आँगन में भीगी लकड़ियाँ समेटता है।

साँझ—

कागज़ का थैला सँभालते हुए

अनाज के संग

समय का भार भी ढोती है।


भूल जाते हैं सब—

गली के उस मोड़ पर

वही कौआ काँव-काँव करता है।

पाँवों के निशान मिटते नहीं,

मिट्टी में धँसकर

अस्तित्व की जड़ों में बदल जाते हैं।


 हवा खिड़कियाँ झकझोरती है,

चूल्हे की हांडी उबलकर

घर की निस्तब्धता को गूँज में बदल देती है।


बरामदे के पौधे

अधिक पानी पीकर झुक जाते हैं—

मानो विनम्रता का भार उठाए हों।


रात के हाथ

आटे में भीगकर सफेद हो जाते हैं।

सन्नाटा

अपनी थाली बजाकर याद दिलाता है—


कि बरसात अब भी होती है।

और तुम्हारे पाँव हैं कि —

पराई धरती पर भी

अपनी मिट्टी खोज लेते हैं।

सोमवार, सितंबर 8

अस्तित्व का बहना


अस्तित्व का बहना
नदी और जीवन का आत्मसंवाद
✍️ अनीता सैनी

वह बहती थी—
शांत, धैर्य से भरी,
जैसे नियति ने पहले ही
उसके प्रवाह में अपना नाम लिख दिया हो।
तटों को लाँघती नदी
मानो समय के कगार पर उकेरा गया प्रश्न हो,
फ़टे बादलों की लकीरों पर टँगा एक उत्तरहीन चिन्ह।

पर जब पीड़ा का ज्वार उठता है,
तो वह सोचती—
क्या अपमानजनक प्रहारों को सहना उचित है,
या मुसीबत की गरजती बिजली के विरुद्ध
विद्रोह की बाढ़ बन जाना?

उसके भीतर मृत्यु भी
एक नींद-सी लगती है—
जहाँ थकान का अंत है,
जहाँ हृदय के दर्द
और जीवन की चोटें
किसी अज्ञात सपने में घुल जाती हैं।

पर उसी नींद का भय
उसे बाँध देता है।
क्योंकि मृत्यु एक अनदेखा देश है,
जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।
यही भय विवेक बन जाता है,
और विवेक उसे कायर बना देता है।

वह जानती है—
संकल्प का रंग
अक्सर विचारों की धुंधली आभा से
फीका पड़ जाता है।
इसीलिए उसके बड़े-बड़े स्वप्न
बहाव में रुक जाते हैं।

फिर भी, नदी रुकती नहीं।
वह समझ चुकी है—
कि उसका बहना ही उसका अस्तित्व है,
चाहे बहाव सँभाले या तोड़े।
उसके कटाव से भी
नई मिट्टी उपजती है,
उसके आँसुओं से भी
नया अंकुर जन्म लेता है।

होना या न होना—
नदी के लिए यह प्रश्न नहीं रहा।
उसके लिए बस इतना है—
बहना ही जीवन है,
और पीड़ा ही वह धारा है
जिससे नया स्वप्न फूटता है।

गुरुवार, सितंबर 4

अधूरेपन का आकाश


अधूरेपन का आकाश
✍️ अनीता सैनी

वे दोनों 
अपनी आख़िरी साँसों पर थे,
टहनियों पर टहलते हुए
याद कर रहे थे—
कितनी बार
हवा ने उन्हें झुलाया,
कितनी बार
पंखों ने दिशा खो दी थी।

वे पूछते—
"तुम बताओ,
तुम कितने आज़ाद थे?"
और जवाबों में
सिर्फ़ टूटे घोंसलों की गूँज थी,
बारिश की बूंदों में
पंख भीगने की थकान थी,
और उन बच्चों की आँखें थीं
जो अब भी
नीचे ज़मीन से ताक रहे थे
कोरे आकाश की ओर।

उन्हींने कहा —
हमने उन्हें
ऊँचाई दिखाने का स्वप्न तो दिया,
पर अपने ही कंधों से बाँधे रखा।
हमारे पंख
उनके पंखों के सहारे न बन सके।
हम इतना ही आज़ाद थे
कि उड़ते-उड़ते
यह स्वीकार कर सकें—
हम अपने बच्चों को उड़ना
सिखा तो सकते थे,
पर अपने कंधों का बोझ
कभी उतार न सके।

और जब वे चुप हुए,
आकाश उनकी थकान को
धीरे-धीरे सोखने लगा।
(जैसे चेतना थके हुए स्वप्नों को
अपने में विलीन कर लेती है।)

पेड़ों की शाख़ें
मानो पुराने घरों-सी टूट रही थीं,
हवा में बिखरे पंख
जैसे फूलों की जगह
जलती हुई धातु टपकाते हों।

बच्चों की आँखों में
अब भी उड़ानों का स्वप्न था—
पर उन स्वप्नों के नीचे
धरती की राख चमक रही थी।
(राख— हर आकांक्षा का अंतिम साक्ष्य।)

हर टूटी टहनी से
एक अधूरी प्रार्थना झर रही थी,
हर मौन पंख से
एक अनकहा गीत जन्म ले रहा था।

और उन दोनों पक्षियों के
आख़िरी स्वर में
सिर्फ़ यह भाव गूँज रहा था—
“हर उड़ान अधूरी है,
पर अधूरापन ही
आकाश का सबसे गहरा रंग है।”


शुक्रवार, अगस्त 29

धुँधलों से हरापन

धुँधलों से हरापन
✍️ अनीता सैनी
……..
अफ़सोस— उसने खाना छोड़ दिया,
भूख अब मर चुकी है।
उसने न सत्य निगला,
न अपनी कठोर आलोचना।
हाँ, निगल लिया उसने
कुछ और ही अजीब, उटपटांग—
हरेपन की हठ में
वृक्ष का सूखापन,
सुंदरता की ललक में
अपनी ही काया के काँटे।

वह यहाँ-वहाँ भटका,
अपने ही प्रतिबिंब से उलझता रहा।
प्रियतम विचारों को ठुकराता रहा।
पर बंजर नहीं हुआ—
पुराने बीज
नए अंकुरों की तरह उग आए।

सत्य को देखा उसने,
पर तिरछी, अजनबी नजरों से।
उसकी रोशनी
कभी पूरी तरह छू न सकी;
फिर भी उन्हीं धुँधलों ने
भीतर एक नया हरापन जगा दिया।

यह विस्मय ही था—
कि सबसे बदतर इरादों ने भी
उसका चेहरा उजला कर दिया;
मानो हर भूल ही
उसके प्रेम की गहराई का प्रमाण हो।

अब सब कुछ बीत चुका है—
न प्रमाण की प्यास,
न कसौटियों की तलाश।
बस बह रही है एक नदी—
देवता-सा समर्पण लिए,
तुम्हारे प्रेम के घेरे में
स्वेच्छा से बँधी;
जहाँ भीतर का शून्य
अनंत के आलिंगन से भर सके।

शनिवार, अगस्त 23

कल्पना की चुप्पी

कल्पना की चुप्पी : अधूरे शब्दों का दर्द

✍️ अनीता सैनी

...

और कुछ नहीं—

बस ठठा उठता है वह पल,

जब दरिद्र हो जाती है मेरी कल्पना,

मानो चेतना का स्रोत ही

क्षण भर में सूख गया हो।


शब्दों का अंबार होते हुए भी

विचार रिक्त खड़े रह जाते हैं—

जैसे मानो

मौन ही आखिरी सत्य बनकर

हर तर्क और हर अभिव्यक्ति को

अर्थहीन कर देता है।


मैं लिखना चाहूँ भी तो

शब्द ठिठक जाते हैं,

क्योंकि सामने तुम्हारा प्रतिबिंब है—

जो मेरे अल्प विचारों की सीमा को

छिन्न-भिन्न कर देता है,

और मेरे भावों को उस

अनन्त के सामने लज्जित कर देता है।


मेरी पंक्तियों में जितना समा पाता है,

उससे कहीं अधिक विराट

व्यथा का प्रतिबिंब

कल्पना के दर्पण में झलक उठता है—

जहाँ कोनों की कोरी चुप्पी

तुम्हारी प्रतीक्षा में

बिलखती रह जाती है।


शनिवार, जुलाई 12

धूल में छिपा समंदर


धूल में छिपा समंदर/ अनीता सैनी
११ जुलाई २०२५
…..

सब कोई कुछ न कुछ जानते हैं।
कोई पहाड़ जानता है,
कोई नदी।
कुछ-कुछ लोग तो मरुस्थल भी जानते हैं।
वे जानते हैं —
कैसे एक मरुस्थल समंदर पी गया,
और फिर
कैसे धूल उड़ाने लगा,
कैसे आँधियों का होकर रहने लगा।

पर
जानने की इस आपाधापी में
स्त्रियाँ सबसे अधिक 'डर' को जानती हैं।
उनकी गीली आँखें, सूखी होने से डरती हैं 
वे 
समंदर पी कर सूखा रहना नहीं जानती
वे बस डर को वे भली-भाँति जानती हैं।

वे जानती हैं —
कि उनके पास बहुत कुछ है,
बहुत ही अनमोल कुछ।
सदियाँ लगीं इस 'बहुत कुछ' को
आले-दीवालों की तह में छिपाने में।
वे
इस 'बहुत कुछ' को खोने से डरती हैं।

पर
उनके पास
बहुत कुछ है — यह उन्हें नहीं पता,
कि 
उन्होंने यह सब कैसे और कब जाना।

सोमवार, जून 30

छलावा


छलावा / अनीता सैनी
२८जून २०२५
…..

प्रत्येक स्त्री जानती है —
हर दूसरी स्त्री की पीठ पर
जन्मजात
एक छलावा बैठा होता है।

फिर भी,
न जाने —
किस कवि की, किस कविता की
पंक्तियों के
सोए भाव बोल पड़े हैं—

कि वह,
गौखों और झरोखों से झाँकता
आसमान का एक टूटता तारा है,
जिसके कंधे पर मन्नतों की पोटली है।

उसके पास न पंख हैं, न आँखें —
फिर भी वह
देखना और उड़ना सिखाता है।

सूरज की
पहली किरण का रसपान कर
वह उठता है,
इसीलिए
पूर्णिमा के चाँद-सा चमकता है।

और अंततः —
स्त्री की दृष्टि में उतरकर
वह
एक नया आकाश रच देता है।

शुक्रवार, जून 20

दरकन

दरकन
……

कविता / अनीता सैनी
१७ जून २०२५

आओ! कुछ देर बैठो!!
दिखाऊँ तुम्हें
एक टूटा हुआ आदमी —
हौसले को
रफ़ू करता हुआ।

अभावग्रस्त —
न ढांडस की डोर,
न अपनेपन का थान,
न पराएपन की कतरन।

"टूटा हुआ आदमी?
अभावग्रस्त?
ढांडस की डोर?
अपनेपन का थान?
पराएपन की कतरन?"
चश्मे से बाहर झाँकती
आँखें बोलीं।

हाँ!
आदमी अपने से
टूट जाता है,
दरक जाता है —
स्त्री थोड़ी है वह
जो तोड़ी जाएगी —
इस बार नाक-मुँह
एक साथ बोले।



गुरुवार, जून 19

मीरा — एक अंतरध्वनि


मीरा — एक अंतरध्वनि
कविता / अनीता सैनी
 १७ जून २०२५
....

अंतः स्वर 
 ध्वनि और दृश्य का
 एक गहरा द्वंद्व है।

धरती के गर्भ से
 फूटा था जो
 उष्ण लावा —
 अब शीतल राख बन चुका है।

बिखरे भावों में उलझा
 एक चोटिल जीवन —
 जो जीना तक
 भूल चुका है।

हाथों में
 एकतारा — या तानपुरा,
 वाणी में
 झरता है
 निस्संग प्रेम…

यह तुम्हारे
 दृश्यों का द्वंद्व है —
 जहाँ
 ध्वनि को तुम “भजन” कहते हो,
 और
 दृश्य को — “मीराँ”।

रविवार, जून 1

कोख से कंठ तक

कोख से कंठ तक / अनीता सैनी
३०मई २०२५
….

भ्रम के बादल
भाव रचते हैं
आत्मा की गीली मिट्टी में —
प्रेम के अंखुए फूटते हैं।

तुमने देखा ही होगा —
मरुस्थल की कोख में
हिलोरे लेता समंदर,
मृगमरीचिका नहीं —
नागफनी को जन्म देता है।

और फिर,
उस नागफनी को
प्रेम में धीरे-धीरे सूखते हुए
भी,
तुमने देखा ही होगा?

और यदि
तुमने नहीं देखा —
तो बस इतना 
कि कैसे
उसके लिखे एक-एक प्रेम-पत्र,
उसी की काया पर उग आए थे
कांटे बनकर।

बुधवार, अप्रैल 23

स्मृति के छोर पर

स्मृति के छोर पर / अनीता सैनी

२२ अप्रैल २०२५

….

अपने अस्तित्व से मुँह फेरने वाला व्यक्ति,

उस दिन

एक बार फिर जीवित हो उठता है,

जब वह धीरे-धीरे

अपने अब तक के, जिए जीवन को

भूलने लगता है।


उसे समझ होती है तो बस इतनी कि

धीरे-धीरे भूलना

और

अचानक सब कुछ भूल जाना —

इन दोनों में अंतर है।

एक जीवन है,

तो दूसरा मृत्यु।


उसे जीवन मिला है —

वह धीरे-धीरे स्वयं को भूल रहा है,

क्योंकि वह अब भी

भोर को ‘भोर’ के रूप में पहचानता है।

जब वह सुबह उठता है,

तो वह

सुबह को ‘सुबह’ के रूप में पहचानता है।


वह

‘न पहचान पाने’ की पीड़ा को भी पहचानता है।


वह दिन में नहीं सोता —

इस डर से नहीं कि रात को उठने पर

कहीं वह रात को

‘रात’ के रूप में पहचान न पाया तो,

बल्कि इसलिए 

कि वह 

दिन को ‘दिन’ के रूप में पहचानता है,

और स्वयं को पुकारता है 

टूटती पहचान की अंतिम दीवार की तरह।


शनिवार, अप्रैल 19

नीरव सौंदर्य

नीरव सौंदर्य / अनीता सैनी

१८अप्रैल २०२५

….

आश्वस्त करती

अनिश्चितताएँ जानती हैं!

घाटियों में आशंकाएँ नहीं पनपतीं;

वहाँ

मिथ्या की जड़ें

गहरी नहीं, अपितु कमजोर होती हैं।


वहाँ अंखुए फूटते हैं

उदासियों के।


जब उदासियाँ

घाटियों में बैठकर कविताएँ रचती हैं,

तब उनके पास

केवल चमकती हुई दिव्य आँखें ही नहीं होतीं,

अपार सौंदर्य भी होता है।


नाक, सौंदर्य का एक अनुपम उदाहरण है,

जिसकी रक्षा आँखें आजीवन करती हैं।

वे यूँ ही नहीं कहतीं—

"कविता प्यास है न हीं तृप्ति

बस

एक घूंट पानी है।"

सोमवार, अप्रैल 14

प्रतीक्षा का अंतिम अक्षर

प्रतीक्षा का अंतिम अक्षर / अनीता सैनी
१४अप्रेल २०२५
……
और एक दिन
उसके जाने के बाद
उसकी लिखी वसीयत खँगाली गई।

कमाई —
धैर्य और प्रतीक्षा।

लॉकर नहीं कोई,
दीवारों ने मुँहज़बानी सुनाई।

समय गवाह था —
न कोई कोर्ट-कचहरी,
न कोई दावा करने वाला।

गहरी विडंबना की घड़ी थी वह...
उस एक दिन,
वे पाँव से कुचली गईं।



मंगलवार, मार्च 25

तुम कह देना

तुम कह देना / अनीता सैनी
 २२ मार्च २०२५
…..
एक गौरैया थी, जो उड़ गई,
 एक मनुष्य था, वह खो गया।
 तुम तो कह देना
 इस बार,
 कुछ भी कह देना,
 जो मन चाहे, लिख देना,
 जो मन चाहे, कह देना।
कहना भर ही उगता है,
अनकहा
खूंटियों की गहराइयों में दब जाता है,
 समय का चक्र निगल जाता है।
ये जो मौन खड़ी दीवारें हैं न,
 जिन पर
 घड़ी की टिक-टिक सुनाई देती है,
 इनकी
 नींव में भी करुणा की नदी बहती है,
 विचारों की अस्थियाँ लिए।


सोमवार, मार्च 24

कविता

कविता-

माथे पर लगी

न धुलने वाली कालिख नहीं है,

और न ही

आत्मा का अधजला टुकड़ा है।


वह

सूखी आँखों से बहता पानी है —

कभी न पूरी होने वाली 

प्रतीक्षा है

शिव के माथे पर चमकता

अक्षत है।


गुरुर करते

वे तीन बेलपत्र हैं,

जिन पर लगा लाल चंदन

और मधु,

प्रीत की भाषा पढ़ाता है।


शब्दों के वार न तोड़ो,

वह

शिवालय के चौखट की रज़ है।



सोमवार, फ़रवरी 17

निराशा का आत्मलाप


निराशा का आत्मलाप / अनीता सैनी

१६फरवरी २०२४

….

उबलता डर

मेरी नसों में

अब भी

सांसों की गति से तेज़ दौड़ रहा है,

जो कई रंगों में रंगा,

चकत्तों के रूप में

मेरी आँखों में उभर-उभर कर

आ रहा है।


आँखों से संबंधित रोग की तरह,

जो

मेरी काया को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा है

और आत्मा को गहरे शून्य में डुबो रहा है।


अलविदा—

गहरे कोहरे में हिलता हाथ,

या जैसे

कोई समंदर के बीचो-बीच

डूबता हुआ एक हाथ।


मुझे पता है,

यह एक कछुए का हाथ है,

परंतु

ये मेरे वे निराशाजनक दृश्य हैं,

जिन्हें मुझे अकेले ही जीना है।


रविवार, जनवरी 19

अधूरे सत्य की पूर्णता


अधूरे सत्य की पूर्णता / अनीता सैनी
१८जनवरी २०२५
......
"स्त्री अधूरेपन में पूर्ण लगती है।"
इस वाक्य का
विचारों में बनता स्थाई घर 
अतीत पर कई प्रश्नचिह्न लगता है।
उससे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वह,
कितना बीमार और उदास था।

वर्तमान पर पड़ते निशान 
भविष्य को अंधा ही नहीं करते,
धरती की काया,
उसकी आत्मा बार-बार तोड़ते हैं।
उन्हें नहीं लिखना चाहिए
कि नैतिकता फूल है,
या
फूलों से खिलखिलाता बगीचा है।

उन्हें लिखना चाहिए
कि स्वस्थ नैतिकता से
लदे फूलों की जड़ों में भी मरघट हैं,
सूखा जंगल है,
जहाँ सूखी टहनियाँ, कांटे ही नहीं,
जड़ें भी पाँव में चुभती हैं।

पूर्वाग्रह टूटने के लिए बने हैं,
टूट जाने चाहिए,
वे ताजगी देते हैं,
पीड़ा नहीं।

वह,
अपना सब कुछ खो देना चाहती है।
इसलिए नहीं
कि वह एक पीड़ित पितृभूमि से है,
इसलिए भी नहीं
कि उसके पैरों पर लगी मिट्टी
आज भी उस पर हँसती है।

इसलिए
कि वह
अपनी सच्चाई से प्रेम करती है।

सोमवार, जनवरी 13

बालिका वधू

बालिका वधू / अनीता सैनी
११जनवरी २०२५
……
बालिका वधू—
एक पात्र नहीं है,
ना ही
सफेद पंखों वाली मासूम परी है।
जिसके पंख काट दिए जाते हैं,
हाथ की छड़ी छीन ली जाती है।
तब उसका जादू
घर की चारदीवारी में नहीं चलता,
और सिर पर रखा पानी का मटका
हाथों से बार-बार गिर जाता है।
कभी चूल्हे की रोटी जल जाती है,
और
जली रोटी उसे आत्मग्लानि से भर देती है।

वह भी नहीं,
जिसमें पूरा परिवार
पच्चीस-तीस वर्ष की युवती ढूंढ़ता है।
और वह भी नहीं,
जिसके
पायल-बिछुआ चुभने पर
मां के सामने बच्ची की तरह
बिलख-बिलखकर रोती है।
वह तो कतई नहीं,
जिसने घूंघट न निकालने की ज़िद में
सप्ताहभर खाने का मुंह न देखा हो।

यह एक गांठ है,
पुरुष के अहं की गांठ,
जिसे एक स्त्री ताउम्र गूंथती है—
रूप-रंग, हाव-भाव, स्वभाव
और चरित्र की जड़ी-बूटियों से।

और एक दिन पुरुष इसे
खोलने की जद्दोजहद में अंधा हो जाता है।
इतना अंधा कि वह
अंधेपन में कई-कई ग्रंथ रच देता है।
और समय इसे
समझ न पाने की पीड़ा से जूझता है।


रविवार, जनवरी 5

बुकमार्क


बुकमार्क / अनीता सैनी

३जनवरी २०२५

……

पुस्तक —

प्रभावहीन शीर्षक,

आवरण, तटों को लाँघती नदी,

फटा जिल्द,

शब्दों में 

उभर-उभरकर आता ऋतुओं का पीलापन,

कुछ पन्नों के बाद

पाठक द्वारा लगाया बुकमार्क

 उसे रसहीन बताता रहा।


पुस्तक के अनछुए पन्ने,

व्यवस्थित रहने का सलीका ही नहीं,

मौन में मधुर स्मृतियों को पीना सिखाते रहे।

उसे बार-बार हिदायत देते रहे—

न पढ़ पाने की पीड़ा में

 न अधिक चिल्लाकर रोना है,

और न ही

ठहाका लगाकर हँसना है।

चेतावनी—

सिले होठों से भाव अधिक मुखर होते हैं।


इतने शालीन ढंग से टिके रहना,

कि समय

पन्नों से हवा के ही नहीं,

आँधियों के भी आँसू पोंछ सके।


पुस्तक— 

कोने में 

स्वयं को पढ़ती है, पढ़ती है

तटों को तोड़ती एक-एक धारा को।

उसे न पढ़ पाने की पीड़ा नहीं कचोटती,

कचोटता है—

बिना पढ़े लगाया बुकमार्क।